Wednesday, December 30, 2009

हिन्‍दी का प्रथम कवि : सिद्ध सरहपा


सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवर्द्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म‘ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी शिक्षा नालंदा-विहार में हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त हुए। अवकाश-प्राप्ति के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर (आंध्रप्रदेश) को उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र बनाया। डाॅ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय द्वारा उन पर लिखित दो प्रामाणिक पुस्तकें सरहपा (विनिबंध, 1996 ई., साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली) तथा सिद्ध सरहपा (उपन्यास, 2003 ई.) प्रकाशित हैं। तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संगृहीत हैं। इनमें से 16 कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं-(1) दोहा कोश-गीति, (2) दोहाकोश नाम चर्यागीति, (3) दोहाकोशोपदेश गीति, (4) क.ख. दोहा नाम, (5) क.ख. दोहाटिप्पण, (6) कायकोशामृतवज्रगीति, (7) वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति, (8) चित्तकोशाजवज्रगीति, (9) कायवाक्चित्तामनसिकार, (10) दोहाकोश महामुद्रोपदेश, (11) द्वादशोपदेशगाथा, (12) स्वाधिष्ठानक्रम, (13) तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीतिका, (14) भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति, (15) वसंत-तिलकदोहाकोशगीतिका तथा (16) महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति। उक्त कृतियों में सर्वाधिक प्रसिद्धि दोहाकोश को ही मिली है। अन्य पाँच कृतियाँ उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं-(1) बुद्धकपालतंत्रपंजिका, (2) बुद्धकपालसाधन, (3) बुद्धकपालमंडलविधि, (4) त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन एवं (5) त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सरह की प्रारंभिक रचनाएँ माना है, जिनमें से चैथी कृति के दो और अंशों के भिन्न अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद स्तन्-ग्युर में शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र कृतियाँ मानकर राहुलजी सरह की सात संस्कृत कृतियों का उल्लेख करते हैं।


10 comments:

  1. एक बहुत अच्छी जानकारी देने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद
    आपको नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं।

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    1. https://thehindipage.com/%e0%a4%b6%e0%a5%88%e0%a4%b2%e0%a5%80/%e0%a4%b8%e0%a4%bf%e0%a4%a6%e0%a5%8d%e0%a4%a7-%e0%a4%b8%e0%a4%b0%e0%a4%b9%e0%a4%aa%e0%a4%be/

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  2. आपको ब्लॉग जगत में सक्रिय देख कर अच्छा लगा। यह सक्रियता इसी प्रकार बनी रहे, यही कामना है।
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    संवाद सम्मान हेतु प्रविष्ठियाँ आमंत्रित।
    साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन के पुरसकार घोषित।

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  3. agar inki rachnaano ki tithiyaan bhi mil jati to aur bhi achha hota

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  4. बुद्ध की सच्चनाम यान के सिद्ध नाथ योगियों से होकर कबीर नानक‌ रैदास‌ गुरुघासीदास तक यहां तक इस्सलाम‌ के सूफी मत में भी सच्चनाम‌ सतनाम‌ सत्यनाम‌ सतिनाम सत्तनाम सचनाम‌ शतनाम के रुप में उल्लेख मिलते हैं। अर्थात् सतनाम संस्कृति इस देश की सनातन संस्कृति के समनान्तर समानता पर आधारित परिवर्तित हुई जो‌अपेछाकृत उत्पीड़ित जनसमूह अंगीकृत किए ।परन्तु दुर्भाग्यवश सतनाम धर्म के रुप में अनेक‌ विखराव और उनपर सनातन संस्कृति ‌के दबाव के चलते संगठित नहीं हो पाए।
    यदि सतनाम धर्म के रुप में स्थापित हो जाए तो कथित सनातन या वैदिक संस्कृति जो जन्मना उचनीच व भेदभाव पर आधारित हैं वह तिरोहित हो जाय या अपने अस्तित्व .के लिए अपेछित बदलाव कर ले।इन दोनो परिस्थितियों में देश और देशवासियों का भला होगा।

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  5. बेहतरीन जानकारी के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद..����

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