Tuesday, December 22, 2009

कोसी नदी : लोकसाहित्‍य संदर्भ

हजारों वर्षों से जिस नदी की धाराएँ निरंतर परिवर्तनशील रही हैं, उस नदी की धाराओं के साथ गतिशील जीवन-जगत की अनुभूतियों का अवगाहन साहित्य के माध्यम से किया जाना सचमुच न केवल दिलचस्प वरन् महत्त्वपूर्ण भी है। लेकिन विध्वंसकारी कोसी ने अपने तटवर्ती जीवन-जगत के साथ संभवतः अधिकांश साहित्यिक विरासत को भी प्रायः निगलने का काम ही किया है। कोसी अंचल के निकटवर्ती नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालयों के विध्वंस (1197 ई.) के कारण भी इस क्षेत्र की ज्ञान और साहित्य विषयक विरासत नष्ट हुई होगी। इसलिए कोसी अंचल के आरंभिक दाय का ही नहीं, वरन् इसके अस्तित्व मात्र का ऐतिहासिक निर्धारण भी प्रायः कठिन है, तथापि रामायण, महाभारत और पुराणों में इसकी और इसके तट पर स्थित 21 तीर्थों की चर्चा इसकी प्राचीनता, महत्ता और इसके जीवंत तटवर्ती जन-जीवन को पुष्ट करती है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कोसी नदी की विध्वंसक प्रवृत्ति के बावजूद कोसी अंचल ने अपनी लोकधर्मी सांस्कृतिक इयत्ता को सदैव बरकरार रखा है। जीवट के धनी यहाँ के लोगों ने न केवल कोसी की विकट धाराओं से संघर्ष किया है, उसका अभिशाप और संताप झेला है; वरन् उनके आस-पास जीवन को उसकी भरपूर जीवंतता और खिलंदड़ेपन के साथ जिया भी है।
कोसी को संबोधित और उससे भी ज्यादा कोसी-केन्द्रित गीतों के अलावा यहाँ का प्रचुर लोकसाहित्य इस बात का प्रमाण है। मिथिला, गौड़-बंगाल और अंग जैसे विशाल साम्राज्यों से घिरा तथा कालक्रम में इनका एक हिस्सा होते हुए भी यह अंचल किसी सांस्कृतिक आधिपत्य का शिकार नहीं हुआ तो इसके पीछे निश्चय ही कोसी नदी का अपना उच्छृंखल एकच्छत्र साम्राज्य ही रहा है, जिसने निकटवर्ती साम्राज्यों के आधिपत्य को प्रायः दुर्वह बनाए रखा। यही कारण है कि इस अंचल में एक मिश्रित सांस्कृतिक परिदृश्य नजर आता है, जिसका आधार निस्संदेह लोक-जीवन और उसकी अस्मिता को बचाए-बनाए रखने में सन्निहित है। दूसरी तरफ यह भी उल्लेखनीय है कि प्राचीन काल में पूर्व और मध्य एशिया के यात्रियों और एक समय में नालंदा, विक्रमशिला और ताम्रलिप्त विश्वविद्यालयों के अध्येताओं के लिए कोसी की धाराओं ने मार्गदर्शन का काम किया है।
कोसी अंचल के लोकगीत, लोक-गाथाओं और लोकदेवों पर पर्याप्त अनुसंधान कार्य भी हुए हैं, लेकिन जहाँ तक कोसी-केन्द्रित गीतों की बात है, इन्हें संगृहीत करने का काम पहली बार ब्रजेश्वर मल्लिक ने किया, जिन्होंने 1942 ई. में पैंतालीस गीत संकलित किए, जो 'कोसी गीत' के नाम से 1949 ई. में पुस्तकाकार प्रकाशित हुए। बाद में इस पुस्तक का द्वितीय संस्करण 'कोसी-लोकगीत' के नाम से 1955 ई. में प्रकाशित हुआ। इस पुस्तक से प्रायः तीस गीतों की पुनः प्रस्तुति 'कोशी अंचल की अनमोल धरोहरें' (2005 ई.) में हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’ द्वारा की गई है।
अंग्रेज विद्वानों में ई.टी. प्रीडो ने 1943 ई. में उन्नीस कोसी गीतों के अंग्रेजी अनुवाद अपनी टिप्पणी के साथ प्रस्तुत किए, जो 'मेन इन इंडिया' के मार्च 1943 ई. के अंक में ‘मदर कोसी सॉन्ग्स’ शीर्षक से प्रकाशित हैं। इसके बाद विभिन्न आलेखों, कृतियों में ब्रजेश्वर मल्लिक और ई.टी. प्रीडो द्वारा संकलित कोसी गीत ही यथासंभव प्रयुक्त और संदर्भित किए जाते रहे। फिर एक लंबे अरसे के बाद 2002 ई. में ओमप्रकाश भारती के 'नदियाँ गाती हैं' में कोसी नदी के गीतों का पुनरनुसंधान करते हुए पचास गीत भावानुवाद के साथ प्रस्तुत किए, जिसमें भारती जी ने अपनी भूमिका में प्रकारांतर से कोसी गीतों की पृष्ठभूमि, भाव-संवेदना और रचना-प्रक्रिया का भी विश्लेषण किया है। इस पुस्तक का द्वितीय संशोधित संस्करण भी 2009 ई. में प्रकाशित हुआ है, जिसमें भारती जी ने ‘कोसी के लोगों का पारंपरिक ज्ञान’, ‘कोसीनदी के गीतों का समाजशास्त्रीय पक्ष’, ‘कोसीनदी के गीतों का पुरासंगीतशास्त्रीय स्वरूप’ एवं ‘कोसीनदी के गीतों का संगीतशास्त्रीय स्वरूप’ शीर्षक चार नवीन आलेखों को समाहित किया है। देवेन्द्र कुमार देवेश के संपादन में प्रकाशित 'कविता कोसी' के द्वितीय खंड (2008 ई.) में भी कोसी नदी के पुराणशास्त्रीय एवं साहित्य-संदर्भों का संक्षिप्त आकलन प्रस्तुत करते हुए कोसी-केन्द्रित कुछ गीत और कविताओं को संगृहीत किया गया है। उक्‍त पुस्‍तक में संकलित सामग्री पुन: उनकी पुस्‍तक 'कोसी नदी : परिचय एवं संदर्भ' (2009 ई.)में भी शामिल की गई है।
कोसी अंचल के लोकसाहित्य पर पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित भगवानचंद्र विनोद, इंदुबाला देवी, तारामोहन प्रसाद, छोटेलाल बहरदार, विनय कुमार चैधरी, कामेश्वर पंकज, ओमप्रकाश भारती, बच्चा यादव, महेन्द्र नारायण राम, रमेश आत्मविश्वास और जनार्दन यादव की कतिपय रचनाओं ने साहित्य प्रेमियों का ध्यान आकृष्ट किया है।

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