मिथकों में कोसी को पुण्यवती सुरसरिता कहा गया है और इसके जन्म की अनेक कथाएँ मिलती हैं। 'रामायण' के अनुसार कोसी (कौशिकी) ऋषि विश्वामित्र की बहन सत्यवती है, जो अपने पति ऋचीक ऋषि के निधन के पश्चात् उनका अनुगमन करते हुए सशरीर स्वर्ग में गई और ‘कौशिकी’ नामक नदी के रूप में परिणत हो गई। कोसी के पितृवंश के संदर्भ में मिथक अलग-अलग कहानियाँ कहते हैं और लोक किंवदंतियों में भी कोसी को लेकर अनेक धारणाएँ प्रचलित हैं।
कोसी के हिमालय-पुत्री तथा देवन ऋषि की कन्या होने की धारणाएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार कोसी कुँवारी है और इसीलिए इतनी उच्छृंखल है, जिसे नियंत्रित करने के लिए सिंदूर से उसे डराने की परंपरा रही है। इस कुँवारी कोसी से शादी करने के लिए उत्कंठित रैया रणपाल और रन्नू सरदार जैसे वीर बहादुर चरित्र भी लोकसाहित्य में मौजूद हैं। लेकिन दूसरी तरफ इसे शादीशुदा मानने के लोकविश्वास भी हैं। एक लोककथा के अनुसार यह ऋचीक ऋषि की पत्नी है और इसके तीन पुत्र भी हुए। बड़े पुत्र सुनव को ऋचीक ने यज्ञ में मानव बलि के लिए राजा सल्फ को दान कर दिया। शोकाकुल कौशिकी के नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली और यही नदी-रूप में परिणत हुई। लोक में इसके रन्नू सरदार, झिमला मल्लाह और सिंहेश्वरी महादेव की ब्याहता होने के उल्लेख भी मिलते हैं।
एक मान्यता के अनुसार कोसी की सातों धाराएँ सगी बहनें हैं। भोट प्रदेश (नेपाल) में प्रचलित कथा के अनुसार दूध कोसी ही मुख्य कोसी है, जिसका विवाह (संगम) अरुण कोसी से होता है।
पुराणशास्त्रों में कोसी का उल्लेख ‘कौशिकी’ के रूप में मिलता है। इस नदी के भौगोलिक वर्णन तो मिलते ही हैं, इसका मानवीकरण भी किया गया है। वाल्मीकीय रामायण (1, 34, 7-11), महाभारत (आदिपर्व, 71, 30) मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण (4, 6, 12-16) में कोसी (कौशिकी) के जन्म की विचित्र कथाएँ मिलती हैं। वे कथाएँ विश्वसनीय हैं या नहीं, यह अलग बात है; लेकिन इनमें कोसी की चर्चा का सीधा अर्थ यह निकलता है कि इन कृतियों के रचना-काल के समय कोसी अस्तित्ववान थी, पुण्यवती मानी जाती थी और सबसे बढ़कर यह कि इसके तटों पर लोगों का निवास था, राज्य भी बसे हुए थे।
कौशिकी तट पर विश्वामित्र तथा विभांडक और उनके पुत्र शृष्यशृंग के आश्रम थे। कौशिकी तथा कौशिकी-क्षेत्र में निम्नांकित तीर्थ थे-कुशिकाश्रम, कौशिकी, चंपकारण्य, ज्येष्टिल, कन्यासंवेद्य, निश्चीरा-संगम, वसिष्ठाश्रम, देवकूट शिखर, कौशिकहृद, वीराश्रम, अग्निधारा, पितामहसर, कुमारधारा, गौरीशंखर-शिखर, स्तनकुंड, ताम्रारुण, नंदिनी कूप, कालिकासंगम, उर्वशीतीर्थ, कुंभकर्णाश्रम तथा कोकामुख। इंद्र के नेतृत्व में ऋषियों एवं राजाओं का एक दल प्रभास तीर्थ से यात्रा आरंभ करके नाना तीर्थों का भ्रमण करते हुए कौशिकी-तीर्थ भी आया था। इस दल में भृगु, वसिष्ठ, गालव, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि, अष्टक, भारद्वाज, अरुंधती और बालखिल्य ऋषि थे तथा राजाओं में शिव, दलीप, नहुष, अंबरीष, ययाति, धुंधुमार, पुरु आदि सम्मिलित थे। पद्मपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, ब्रह्मांडपुराण, वायुपुराण, वामनपुराण, वायुपुराण, नारदीयपुराण, हरिवंशपुराण एवं विष्णुपुराण तथा कालिदासकृत 'कुमारसंभव' में भी कोसी नदी का नामोल्लेख और इसके विविध प्रसंगों का वर्णन मिलता है। पौण्ड्रराज वासुदेव सहित कौशिकीकच्छ के सभी राजाओं को भीम ने पराजित किया था। पंडित हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ ने अपनी पुस्तक 'बिहार की नदियाँ' (1977 ई.) में सांस्कृतिक भूगोल के अध्येताओं के लिए कौशिकी-तीर्थों की आधुनिक पहचान को एक चुनौतीपूर्ण कार्य माना है, तथापि उन्होंने काव्य-पुराणों के वर्णन के आधार पर इन तीर्थों के संभावित स्थल इंगित करने के प्रयत्न किए हैं।
कोकामुख तीर्थ (वराहक्षेत्र) और बद्री क्षेत्र के तीर्थों का विशद वर्णन वराहपुराण (अध्याय 140, श्लोक 12-90 तथा अध्याय 141, श्लोक 1-52) में प्राप्त होता है, जिसके अंतर्गत निम्नांकित तीर्थों के नामोल्लेख और स्थिति संकेत किए गए हैं-जलबिन्दु, विष्णुधारा, विष्णुपद, विष्णुसर, सोमतीर्थ, तुंगकूट, अग्निसर, ब्रह्मसर, धेनुवट, धर्मोद्भव, कोटिवट, पापप्रमोचन, यम व्यसनक, मातंगाश्रम, वज्रभव, शुकरुद्र, द्रष्टांकुर, विष्णुतीर्थ, त्रिसोतस, मत्स्यशिला, वराहतीर्थ, ब्रह्मकुंड, अग्निसत्यपद, इंद्रलोक, पंचशिख, वेदधार, द्वादशादित्य कुंड, लोकपाल, स्थल कुंड, सोमसमुद्भव, सोमगिरि, उर्वशी, मानसोद्भेद और सोमाभिषक। कालिदास के काव्य 'कुमारसंभव' (सर्ग 6, श्लोक 33) में भी कौशिकी तट को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव देवताओं के पारस्परिक मिलन का पूर्व निर्दिष्ट स्थल बताते हुए लिखा गया है कि कौशिकी तट पर साक्षात् भगवान शिव का निवास है।
No comments:
Post a Comment