सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है। एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवर्द्धन प्रदेश में होने का अनुमान किया है। अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है। उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म‘ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं। वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे। उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है। वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे। उनकी शिक्षा नालंदा-विहार में हुई थी तथा अध्ययन के उपरांत वे वहीं प्रधान पुरोहित के रूप में नियुक्त हुए। अवकाश-प्राप्ति के बाद श्रीपर्वत, गुंटूर (आंध्रप्रदेश) को उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र बनाया। डाॅ. विश्वंभरनाथ उपाध्याय द्वारा उन पर लिखित दो प्रामाणिक पुस्तकें सरहपा (विनिबंध, 1996 ई., साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली) तथा सिद्ध सरहपा (उपन्यास, 2003 ई.) प्रकाशित हैं। तिब्बती ग्रंथ स्तन्-ग्युर में सरहपा की 21 कृतियाँ संगृहीत हैं। इनमें से 16 कृतियाँ अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में हैं, जिनके अनुवाद भोट भाषा में मिलते हैं-(1) दोहा कोश-गीति, (2) दोहाकोश नाम चर्यागीति, (3) दोहाकोशोपदेश गीति, (4) क.ख. दोहा नाम, (5) क.ख. दोहाटिप्पण, (6) कायकोशामृतवज्रगीति, (7) वाक्कोशरुचिरस्वरवज्रगीति, (8) चित्तकोशाजवज्रगीति, (9) कायवाक्चित्तामनसिकार, (10) दोहाकोश महामुद्रोपदेश, (11) द्वादशोपदेशगाथा, (12) स्वाधिष्ठानक्रम, (13) तत्त्वोपदेशशिखरदोहागीतिका, (14) भावनादृष्टिचर्याफलदोहागीति, (15) वसंत-तिलकदोहाकोशगीतिका तथा (16) महामुद्रोपदेशवज्रगुह्यगीति। उक्त कृतियों में सर्वाधिक प्रसिद्धि दोहाकोश को ही मिली है। अन्य पाँच कृतियाँ उनकी संस्कृत रचनाएँ हैं-(1) बुद्धकपालतंत्रपंजिका, (2) बुद्धकपालसाधन, (3) बुद्धकपालमंडलविधि, (4) त्रैलोक्यवशंकरलोकेश्वरसाधन एवं (5) त्रैलोक्यवशंकरावलोकितेश्वरसाधन। राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सरह की प्रारंभिक रचनाएँ माना है, जिनमें से चैथी कृति के दो और अंशों के भिन्न अनुवादकों द्वारा किए गए अनुवाद स्तन्-ग्युर में शामिल हैं, जिन्हें स्वतंत्र कृतियाँ मानकर राहुलजी सरह की सात संस्कृत कृतियों का उल्लेख करते हैं।
कोसी नदी की विध्वंसक प्रवृत्ति के बावजूद कोसी अंचल ने अपनी लोकधर्मी सांस्कृतिक इयत्ता को सदैव बरकरार रखा है। जीवट के धनी यहॉं के लोगों ने न केवल कोसी की विकट धाराओं से संघर्ष किया है, उसका अभिशाप और संताप झेला है, वरन उनके आसपास जीवन को उसकी भरपूर जीवंतता और खिलंदड़ेपन के साथ जिया भी है। 'कविता कोसी' कोसी नदी और अंचल के भौगोलिक, ऐतिहासिक, सांस्कृतिक सदर्भों सहित अंचल की साहित्यिक विरासत को संरक्षित और प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास है।
Wednesday, December 30, 2009
Wednesday, December 23, 2009
कोसी : समकालीन साहित्य-संदर्भ
Tuesday, December 22, 2009
कोसी नदी : लोकसाहित्य संदर्भ
Wednesday, December 16, 2009
कोसी नदी : शोध- संदर्भ
कोसी क्षेत्र का पहला प्रामाणिक नक्शा मेजर जेम्स रेनेल नामक एक अंग्रेज सर्वेयर द्वारा पहली बार 1779 ई. (मेमोयर्स ऑफ द मैप ऑफ हिन्दुस्तान, 1788 ई.) में तैयार किया गया था, जिसमें कोसी नदी के तत्कालीन प्रवाह-मार्ग की आधिकारिक जानकारी मिलती है। इसके बाद उन्नीसवीं शताब्दी के प्रारंभ (1809-10 ई.) में अंग्रेज भूगोलवेत्ता फ्रांसीस बुकानन द्वारा तैयार किए गए 'एन एकाउंट ऑफ द डिस्ट्रिक्ट ऑफ पूर्णिया' को याद करना उचित होगा, जिसमें उन्होंने कोसी नदी की पूर्व और तत्कालीन धाराओं के अध्ययन के साथ-साथ कोसी अंचल के जन-जीवन पर एक गहन सर्वेक्षण प्रस्तुत किया था।
इसके पश्चात् रॉबर्ट मांट गुमरी मार्टिन की पुस्तक 'द हिस्ट्री, एंटिक्विटीज, टोपोग्राफी एंड स्टैटिस्टिक्स ऑफ ईस्टर्न इंडिया' (1838 ई.) तथा डब्ल्यू.डब्ल्यू. हंटर द्वारा लिखित पुस्तक शृंखला ‘स्टैटिस्टिकल अकाउंट्स ऑफ बंगाल’ के पंद्रहवें खंड (डिस्ट्रिक्ट ऑफ मुंगेर एंड पूर्णिया, 1877 ई.) में कोसी नदी और इस क्षेत्र के बारे में पर्याप्त विवरण उपलब्ध होते हैं। इस क्रम में 'जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' (दिसंबर, 1895 ई.) में प्रकाशित एफ.ए. शिलिंगफोर्ड और चार्ल्स इलियट के ‘ऑन चेन्जेज इन कोर्स ऑफ कुसी रिवर एंड द प्रोबैबल डेन्जर्स अराइजिंग फ्रॉम देम’ शीर्षक लंबे लेख भी उल्लेखनीय हैं। शिलिंगफोर्ड का लेख 1895 ई. में ही बैप्टिस्ट मिशन प्रेस, कोलकाता से 'कोसी रिवर' के नाम से पुस्तकाकार भी प्रकाशित हुआ था।
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में 'जर्नल ऑफ एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल' (सितंबर 1908 ई.) में प्रकाशित एफ.सी. हर्स्ट का आलेख ‘द कोसी रिवर एंड सम लेशंस फ्रॉम इट’ कोसी नदी पर एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन है। जे. बिर्ने द्वारा तैयार किए गए 'डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ भागलपुर' (1911 ई.) तथा एल.एस.एस. ओ’मैली द्वारा तैयार किए गए 'डिस्ट्रिक्ट गजेटियर ऑफ पूर्णिया' (1911 ई.) में कोसी नदी और उसके तटवर्ती जीवन के संदर्भ मिलते हैं। 1946 ई. में प्रकाशित हरिनाथ मिश्र की पुस्तक 'द कोसी प्रॉब्लेम' भी कोसीजनित समस्याओं को समझने में सहायता करती है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद बिहार सरकार द्वारा पी.सी. राय चौधुरी द्वारा तैयार किए गए 'पूर्णिया' और 'सहरसा' शीर्षक से इन जिलों के गजेटियर क्रमशः 1963 और 1965 ई. में प्रकाशित किए गए, जिनमें कोसी अंचल का सांगोपांग सर्वेक्षण और अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। 'सहरसा' गजेटियर में कोसी प्रोजेक्ट के मुख्य अभियंता देवेश मुखर्जी की सहायता से तैयार किया गया ‘द कोसी’ शीर्षक अध्याय यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो कोसी नदी की भौगोलिक स्थिति और तज्जनित समस्याओं एवं उनके समाधान के प्रयत्नों पर प्रकाश डालता है।
स्वातंत्र्योत्तर काल में कोसी नदी पर पहली सुविचारित कृति 'कोसी' (1953 ई.) नाम से ललितेश्वर मल्लिक द्वारा प्रस्तुत की गई, जिसमें उन्होंने कोसी की भौगोलिक प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालते हुए कोसी अंचल के बीहड़ जन-जीवन और समस्याओं को सामने रखा। इसका दूसरा संशोधित संस्करण भी 1961 ई. में प्रकाशित हुआ। निजी तौर पर किए गए कोसी नदी के सर्वेक्षणों में 'बिहार की नदियाँ', प्रथम खंड (1977 ई.) में पंडित हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ द्वारा कोसी और उसकी सहायक नदियों पर किया गया भौगोलिक और सांस्कृतिक सर्वेक्षण सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है।
'कोसी प्रोजेक्ट' के नाम से 1981 ई. में प्रकाशित निरंजन पंत की पुस्तक सिंचाई और प्रशासनिक दृष्टि से कोसी प्रोजेक्ट का अविकल अध्ययन प्रस्तुत करनेवाली एक महत्त्वपूर्ण कृति है। विजयशंकर पांडेय और परमेश्वर गोयल द्वारा 1992 ई. में प्रस्तुत किए गए 'महाकोशी' (एक सांस्कृतिक सर्वेक्षण) का उल्लेख भी समीचीन होगा। विजयशंकर पांडेय के संपादन में 1995 ई. में 'कोशी क्षेत्र: आर्थिक सर्वेक्षण' नामक एक अन्य पुस्तक भी प्रकाश में आई। आपदा-प्रबंधन की दृष्टि से विभिन्न नदियों के गहन अध्येता दिनेश कुमार मिश्र की पहली पुस्तक 'बंदिनी महानंदा' (1994 ई.) में पूर्णिया अंचल और महानंदा नदी के अध्ययन-क्रम में प्रकारांतर से कोसी नदी की भयावह स्थितियों का भी आकलन किया गया है।
इक्कीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में कोसी नदी, कोसी गीत और कोसी के तटवर्ती जनजीवन को लेकर एक महत्त्वपूर्ण कार्य ओमप्रकाश भारती ने 'नदियाँ गाती हैं' (2002 ई.) के रूप में प्रस्तुत किया है। 2005 ई. में प्रकाशित 'कोशी अंचल की अनमोल धरोहरें' नामक पुस्तक में हरिशंकर श्रीवास्तव ‘शलभ’ ने कोसी अंचल के ऐतिहासिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक संदर्भों को आकलित किया है। इस दिशा में अद्यतन प्रयत्न दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'कोसी नदी की कहानी: दुइ पाटन के बीच में...'(2006 ई.) के रूप में सामने आया है, जिसे लोक विज्ञान संस्थान, देहरादून द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसमें कोसी नदी और अंचल के भौगोलिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राजनीतिक अध्ययन के साथ-साथ यहाँ की त्रासद स्थितियों के वैज्ञानिक और सुविचारित समाधान की चिन्ता भी है।
Tuesday, December 15, 2009
कोसी अंचल : परिसीमा एवं इतिहास
कोसी अंचल से तात्पर्य कोसी नदी की विभीषिका का साक्षी रहे भू-क्षेत्र से है। मार्ग परिवर्तनशीला कोसी अपनी छाड़न धारा परमान से लेकर तिलयुगा तक हजारों वर्षों से बहती आई है और इन धाराओं के बीच के भू-क्षेत्र का निर्माण और ध्वंस करती रही है। इस दृष्टि से 1964 ई. में संपूर्ण तटबंध निर्माण के बाद निर्धारित कोसी के वर्तमान प्रवाह-मार्ग के पूरब के क्षेत्र को हम कोसी अंचल के नाम से अभिहित कर सकते हैं, जिसकी पूर्वी सीमा महानंदा नदी का प्रवाह-मार्ग है, जबकि दक्षिणी सीमा गंगा नदी का प्रवाह-मार्ग। अंचल की उत्तरी सीमा भारत-नेपाल की सीमा भी है। कोसी अंचल के इस सीमांकन में प्रशासनिक दृष्टि से बिहार के पूर्णिया और सहरसा प्रमंडल के अंतर्गत आनेवाले सात जिले शामिल हैं-कटिहार, पूर्णिया, अररिया, किशनगंज, मधेपुरा, सहरसा और सुपौल।
चूँकि कोसी नदी का प्रवाह-मार्ग परिवर्तनशील रहा है, इसलिए भिन्न-भिन्न समयों में इस अंचल के भू-भाग भिन्न-भिन्न शासकों द्वारा शासित होते रहे हैं, क्योंकि कोसी के प्रवाह-मार्ग ने प्रायः राज्यों की सीमा-रेखा के रूप में कार्य किया है। प्राचीन काल में कोसी नदी का पश्चिमी हिस्सा कभी विदेह तो कभी अंग राज्यों का हिस्सा रहा है तथा वहाँ के शासकों द्वारा शासित हुआ है, जबकि इसका पूर्वी हिस्सा कालक्रम में कभी स्वतंत्र रहा तो कभी बंगाधिपतियों द्वारा शासित हुआ है। किसी-किसी काल में यह अंचल सम्मिलित शासकों द्वारा भी शासित हुआ है।
याज्ञवल्क्य प्रणीत 'शतपथ ब्राह्मण' (शुक्ल यजुर्वेद, अध्याय 1) की एक कथा के अनुसार आर्यों के एक दल ने विदेध माथव के नेतृत्व में अपने कुल पुरोहित गोतम रहूगण के साथ सरस्वती नदी के तट से पूर्व दिशा की ओर प्रस्थान किया। वे लोग वैश्वानर अग्नि को सम्मुख रखकर उसके पीछे चलते हुए पूरब की ओर बढ़े। अग्नि सामने पड़नेवाले वनों को जलाते और स्रोत-नदियों को सुखाते हुए आगे बढ़ती गई, किन्तु हिमालय की ओर से आनेवाली अत्यंत बर्फीली नदी ‘सदानीरा’ तक आकर रुक गई, उसे सुखा नहीं सकी। मथवा के यह पूछने पर कि अब हम कहाँ जाएँ, अग्नि ने कहा-
”तस्या नद्याः प्राग्देशः सर्वोपि इदानीं ब्राह्मणवासः.....यतो वैश्वानराग्निनानास्वादितम् तस्तत्स्थानमपवित्रम (1-4/1-15) अर्थात् नदी के पूर्व देशों में सब जगह ब्राह्मण वास करने लगे हैं.....लेकिन वैश्वानर अग्नि द्वारा अनास्वादित वे स्थान अपवित्र हैं।
प्रतिष्ठित पुरातत्त्वज्ञ राखालदास बनर्जी और महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सदानीरा की पहचान कौशिकी के रूप में की है। (इंडियन हिस्टोरिकल क्वार्टरली, मार्च 1945)
इस प्रकार आर्यों ने कौशिकी (कोसी) के पश्चिमी तट पर पहुँचकर उत्तरी बिहार में तत्कालीन आर्यावर्त की पूर्वी सीमा निर्धारित कर दी और अपने राज्य को ‘स्वदेश’ की संज्ञा दी। कोसी के पूरब घने जंगल थे, भूमि उर्वर थी, लेकिन वहाँ आर्येतर जातियों का निवास था, इसलिए बढ़ती जनसंख्या के कारण वासयोग्य और कृषियोग्य भूमि के अभाव के बावजूद आर्यजन कोसी को पार करने के लिए तैयार नहीं थे, लेकिन पेट की भूख ने उन्हें ‘स्वदेश’ का परित्याग कर बंधु-बांधवों समेत बाल-बच्चों को कंधे पर उठा कोसी लाँघने को विवश कर ही दिया; और इस प्रकार आर्यजन वास के लिए प्रतिबंधित सीमा का अतिक्रमण कर पूर्वी क्षेत्र में कारतोया नदी तक फैल गए। 'हरिवंशपुराण' के रचयिता ने इसका बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है-
स्वदेशोभ्यः परिभ्रष्टा निःसारा सहबंधुभिः। नरा सर्वे भवष्यिन्ति तदाकालपरिक्षयात।। ततः स्कन्धै समादाय कुमारान विद्रुताभयात। कौशिकीं प्रतरिष्यन्ति नरा क्षुद्भयपीड़िताः।।
वेदपुराणशास्त्रों से प्राप्त राजनीतिक इतिहासवृत्त के अनुसार विवश्वान मनु के ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु ने कोशल राज्य की स्थापना की थी, जिनके दो पुत्रों निमि और नाभनेदिष्ट ने बाद में क्रमशः मिथिला और वैशाली राज्य स्थापित किए। पार्जिटर द्वारा तैयार प्राचीन भारतीय राजवंशावली के अनुसार मनु की पुत्री इला से पुरूरवा, नहुष, ययाति, अणु, पुरु आदि सुप्रसिद्ध सम्राटों की चंद्रवंशावली ने प्राचीन भारत में शासन किया। इसी चंद्रवंश में राजा अणु के पुत्र तितिक्षु ने आणव राज्य की स्थापना की थी,जिसे पुराणों में प्राच्य राज्य की संज्ञा दी गई है।
आणव राजवंशावली का सर्वाधिक प्रतापी राजा बली हुआ। बली का कोई औरस पुत्र नहीं था। राजा बली की स्वीकृति से रानी सुदेषणा ने नियोग द्वारा अंधे महर्षि दीर्घतमा से पाँच क्षेत्रज पुत्र पैदा किए, जो क्रमशः अंग, बंग, पुंड्र, सूक्ष्म या सुह्म और कलिंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्होंने कालक्रम में अपने नामों पर पाँच राज्यों की स्थापना कर प्राच्य राज्य का विस्तार उत्तरी बंगाल और ओड़िशा तक फैला दिया। इतिहासकारों और पुरातत्त्वज्ञों ने अंग की वर्तमान पहचान पुराने भागलपुर प्रमंडल (जिसमें वर्तमान पूर्णिया एवं सहरसा प्रमंडल शामिल थे), पुंड्र की पहचान महानंदा नदी से कारतोया नदी के बीच के भूक्षेत्र, बंग की पहचान पुराने ढाका प्रमंडल, सूक्ष्म की पहचान वर्तमान पश्चिम बंगाल स्थित मुर्शिदाबाद-वीरभूमि के जिलों (राढ़ अंचल) तथा कलिंग की पहचान वर्त्तमान ओडि़शा के पूर्वोत्तर भू-क्षेत्र के रूप में की है।
रामायण-काल में भी कोसी अंचल अंग राज्य के अधीन ही था, जिसके राजा लोमपाद थे। राजा दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ के लिए कौशिकी तट निवासी विभांडक गौतम मुनि के पुत्र ऋष्यशृंग की उपलब्धता के लिए अंगराज लोमपाद की ही सहायता ली थी। महाभारत-काल में कोसी अंचल अंग से स्वतंत्र कौशिकीकच्छ राज्य के रूप में वर्णित है, जिसके पश्चिम में मिथिला और पूरब में पुंड्र की अवस्थिति थी। युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के बाद पूर्वी राज्यों के दिग्विजय-अभियान के क्रम में भीम ने क्रमशः मिथिला और उसके उत्तर के सात किरात राज्यों, गंगा के दक्षिण स्थित मगध, अंग, मोदागिरि और झारखंड के पर्वतीय राज्यों, गंगा के उत्तर स्थित कौशिकीकच्छ के राजा महायश (महौजा) तथा उसके पूरब स्थित पुंड्रवर्द्धन के बलशाली राजा वासुदेव को पराजित कर बंग देश की ओर प्रस्थान किया था। पार्जिटर ने पूर्णिया जिला के कोसी नदी से महानंदा नदी के बीच के भूभाग को कौशिकीकच्छ माना है, लेकिन गौड़बंगाल के कुछ इतिहासकार इसके अंतर्गत मधेपुरा-सहरसा जिलों के पूर्वी भाग, सोनबरसा राज तथा महानंदा-गंगा संगम के सारे पश्चिमी भूक्षेत्र को शामिल मानते हैं। इस प्रकार महानंदा नदी के पश्चिम स्थित मालदह जिले का सारा क्षेत्र इसके अंतर्गत था, जो कि 1835 ई. में मालदह जिला-निर्माण के पूर्व तक पूर्णिया का ही हिस्सा था। भूगोलविद् नंदलाल दे ने भी अपनी पुस्तक 'ज्योग्राफिकल डिक्शनरी ऑफ एंशिएंट एंड मेडिवल इंडिया' में लिखा है कि वर्तमान पूर्णिया जिला ही प्राचीन कौशिकीकच्छ है, जिसमें त्रिवेणी-संगम तथा वराह क्षेत्र तक के पर्वतीय भूभाग भी सम्मिलित थे।(पृ. 161)
कालांतर में पुंड्रवर्द्धन के राजाओं ने अपनी सीमा का विस्तार करके कौशिकीकच्छ पर भी अपना आधिपत्य कायम कर लिया। तभी तो ऐतरेय ब्राह्मण (रचनाकाल: ई. पू. 1000-1500) में पुंड्रजनों को विश्वामित्र की संतान कहा गया है। पुंड्रवर्द्धन राज्य की उक्त अवस्थिति की पुष्टि बौद्ध स्रोतों तथा मौर्यकालीन (महास्थानगढ़, बोगरा से प्राप्त अभिलेख) एवं गुप्तकालीन (दामोदरपुर से प्राप्त बुधगुप्त एवं देवगुप्त के ताम्रलेख) अभिलेखों से भी होती है।
बुद्ध-काल में गंगा नदी के उत्तर कमला नदी और कोसी नदी के बीच का क्षेत्र अंगुत्तराप के नाम से जाना जाता था, जो अंग महाजनपद का हिस्सा था। गौतम बुद्ध (623-543 ई.पू.) द्वारा इस क्षेत्र की यात्रा के समय अंग शिशुनागवंशी मगधराज बिंबिसार (शासन काल 585-551 ई.पू.) के अधीन था। बुद्ध द्वारा अंगुत्तराप के ‘आपण निगम’ नामक स्थान पर महीने भर के प्रवास का प्रसंग मिलता है (मज्झिम निकाय, 2, 1, 4 तथा महावग्गो, 6, 5, 2, 15), जिसके अनुसार वे भद्दिया से गंगा पारकर आपण गए थे और जातिवन में ठहरे थे, जहाँ पोत्तलीय नामक गृहस्थ को दीक्षित किया था और केणियवाह ग्राम के केणिय नामक जटिल ने 1200 बौद्ध-भिक्षुओं को भोजन पर बुलाया था और मैरेय-पान कराया था। केणियवाह, जातिवन, आपण निगम और भद्दिया की आधुनिक पहचान क्रमशः सहरसा जिले के कंदाहा, देवनवन, वनगाँव और भित्तिया गाँव के रूप में की गई है।
बुद्ध द्वारा कोसी नदी को पार कर पूर्व देशों की यात्रा का कोई भी साक्ष्य हमें प्राप्त नहीं होता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि उनके समय में कोसी का प्रवाह-मार्ग इसकी हइया धार अथवा इसके पूर्व की कोई अन्य धारा रही होगी। शिशुनाग राजवंश (642-413 ई.पू.) के बाद क्रमशः नंद राजवंश (413-322 ई.पू.), मौर्य-राजवंश (322-185 ई.पू.), शुंग-राजवंश (185-73 ई.पू.), कण्व-राजवंश (73-28 ई.पू.) और आंध्र-सातवाहन कुल (28-78 ई.पू.) प्रभुत्वशाली हुए, जिनका शासन अंग, मिथिला और पुंड्रवर्द्धन पर भी रहा। इसके बाद का गुप्त साम्राज्य से पूर्व तक का काल विदेशी आक्रमण और स्थानिक शक्तियों के उदय के कारण प्रायः राजनीतिक अस्थिरता का रहा है। भूगोलवेत्ता प्टोलेमी और मेगास्थनीज (भारत यात्रा: 315 ई.पू.) के मतानुसार महानंदा से पश्चिम गंडकी नदी तक के क्षेत्र में मुरुंड, किरात और भारशिव-नाग जनजातियों की उपस्थिति रही है। किसी केन्द्रीय नेतृत्व के अभाव में मिथिला और पुंड्र क्षेत्र में इन जनजातियों के शासन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। भारशिव-नाग वंश ने 320 ई. तक प्रायः 200 वर्षों तक शासन किया है। यत्किंचित शक-शासन भी इस क्षेत्र में अवश्य रहा होगा, अन्यथा शक संवत को यहाँ मान्यता न मिलती।
गुप्त काल (320-593 ई.) में उत्तरी बिहार दो भुक्तियों (क्षेत्रों) में बँटा हुआ था-तीरभुक्ति (प्रायः संपूर्ण उत्तरी बिहार) तथा पुंड्रवर्द्धन भुक्ति (वर्तमान सहरसा और पूर्णिया प्रमंडलों सहित उत्तरी बंगाल)। वृहद विष्णुपुराण (रचना काल: गुप्तोत्तर काल) के मिथिला खंड में तीरभुक्ति शब्द का प्रयोग करते हुए इसकी सीमाओं का निर्देश इस प्रकार किया गया है-पूर्व में कौशिकी, पश्चिम में गंडकी, दक्षिण में गंगा और उत्तर में अरण्य प्रदेश। इस स्पष्ट सीमांकन के रहते हुए भी यह दुःखद है कि मिथिला (तीरभुक्ति) की सीमा को पूर्व में महानंदा नदी तक ले जाने का दुराग्रह पाला जाता है। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि कोसी का प्रवाह-मार्ग बदलते रहने के कारण वर्तमान कोसी अंचल के अनेक हिस्से कभी-न-कभी मिथिला के शासकों द्वारा अवश्य शासित हुए होंगे।
गुप्त साम्राज्य के पतन के वाद पूर्वोत्तर बिहार और असम-बंगाल के इस क्षेत्र में स्थानिक वर्चस्व की असंख्य लड़ाइयाँ लड़ी गईं और यहाँ राजनीतिक अराजकता का माहौल रहा। यहाँ तक कि हर्षवर्द्धन की मृत्यु (647 ई.) के बाद लगभग 75 वर्षों तक का इतिहास प्रायः तिमिराच्छन्न है। एक लंबे समय तक इस क्षेत्र में चले सत्ता-संघर्ष में परवर्ती गुप्तराजवंश, मौखरी राजकुल, पुष्पभूति (वर्द्धन) राजकुल, बंगाल का राजा शशांक, बांग-हुएन्-त्से (तिब्बती आक्रमणकारी), कामरूप-भूप हर्ष, कन्नौज-राज यशोवर्मन, कश्मीरेश्वर ललितादित्य मुक्तापीड़, पाल, प्रतिहार, राष्ट्रकूट, चंदेल, चालुक्य, चेदि (कल्चुरि) आदि भूपति शामिल रहे हैं। पाल राजवंश एक लंबे अंतराल (750-1197 ई.) तक जरूर शासन में बना रहा, लेकिन छीना-झपटी और लूट-खसोट बदस्तूर जारी रहे थे।
अंततः 1097 ई. में कोसी के पश्चिम मिथिला में नान्यदेव द्वारा कर्णाट राजवंश की स्थापना की गई। इस वंश के अंतिम शासक हरिसिंह देव (शासनकाल: 1307-1324 ई.) थे। नान्यदेव के पुत्र गंगदेव (शासनकाल: 1147-1187 ई.) के काल में कोसी का प्रवाह-मार्ग इसकी सउरा धार थी और यह तिरहुत (मिथिला) और बंगाल की सीमा रेखा का काम करती थी। इस समय बंगाल में सेन वंश का शासन था। 1324 ई. में गियासुदीन तुगलक की मिथिला-विजय के पश्चात् यहाँ क्रमशः दिल्ली, जौनपुर तथा पुनः दिल्ली के अधीन अर्द्ध-स्वतंत्र राजसत्ता ओइनवार राजवंश ने सँभाली, जो 1526 ई. तक राज करता रहा। इस वंश का सर्वाधिक लोकप्रिय राजा शिवसिंह (1413-1416 ई.) था, जिसकी कीर्ति की विरुदावली मैथिली कवि विद्यापति ने गाई है। इस दौरान कोसी के पूर्वी भाग पर बिहार-बंगाल के मुस्लिम शासकों का अधिपात्य रहा, जो दिल्ली के अधीन थे, लेकिन स्वतंत्र होने के लिए लड़ाइयाँ लड़ते रहते थे और यदा-कदा स्वतंत्र भी हो जाया करते थे। 1576 ई. में पूरी तरह बंगाल दमन के पश्चात् ये क्षेत्र मुगल सल्तनत के अधीन हो गए और बाद में ईस्ट इंडिया कंपनी को हस्तांतरित हो गए। इसके बाद का कोसी अंचल का इतिहास प्रायः सुस्पष्ट और सुलेखित है।
Monday, December 14, 2009
मिथक, किंवदंती एवं पुराणशास्त्रीय संदर्भ
मिथकों में कोसी को पुण्यवती सुरसरिता कहा गया है और इसके जन्म की अनेक कथाएँ मिलती हैं। 'रामायण' के अनुसार कोसी (कौशिकी) ऋषि विश्वामित्र की बहन सत्यवती है, जो अपने पति ऋचीक ऋषि के निधन के पश्चात् उनका अनुगमन करते हुए सशरीर स्वर्ग में गई और ‘कौशिकी’ नामक नदी के रूप में परिणत हो गई। कोसी के पितृवंश के संदर्भ में मिथक अलग-अलग कहानियाँ कहते हैं और लोक किंवदंतियों में भी कोसी को लेकर अनेक धारणाएँ प्रचलित हैं।
कोसी के हिमालय-पुत्री तथा देवन ऋषि की कन्या होने की धारणाएँ प्रचलित हैं। एक मान्यता के अनुसार कोसी कुँवारी है और इसीलिए इतनी उच्छृंखल है, जिसे नियंत्रित करने के लिए सिंदूर से उसे डराने की परंपरा रही है। इस कुँवारी कोसी से शादी करने के लिए उत्कंठित रैया रणपाल और रन्नू सरदार जैसे वीर बहादुर चरित्र भी लोकसाहित्य में मौजूद हैं। लेकिन दूसरी तरफ इसे शादीशुदा मानने के लोकविश्वास भी हैं। एक लोककथा के अनुसार यह ऋचीक ऋषि की पत्नी है और इसके तीन पुत्र भी हुए। बड़े पुत्र सुनव को ऋचीक ने यज्ञ में मानव बलि के लिए राजा सल्फ को दान कर दिया। शोकाकुल कौशिकी के नेत्रों से आँसुओं की धारा बह चली और यही नदी-रूप में परिणत हुई। लोक में इसके रन्नू सरदार, झिमला मल्लाह और सिंहेश्वरी महादेव की ब्याहता होने के उल्लेख भी मिलते हैं।
एक मान्यता के अनुसार कोसी की सातों धाराएँ सगी बहनें हैं। भोट प्रदेश (नेपाल) में प्रचलित कथा के अनुसार दूध कोसी ही मुख्य कोसी है, जिसका विवाह (संगम) अरुण कोसी से होता है।
पुराणशास्त्रों में कोसी का उल्लेख ‘कौशिकी’ के रूप में मिलता है। इस नदी के भौगोलिक वर्णन तो मिलते ही हैं, इसका मानवीकरण भी किया गया है। वाल्मीकीय रामायण (1, 34, 7-11), महाभारत (आदिपर्व, 71, 30) मार्कण्डेय पुराण और विष्णु पुराण (4, 6, 12-16) में कोसी (कौशिकी) के जन्म की विचित्र कथाएँ मिलती हैं। वे कथाएँ विश्वसनीय हैं या नहीं, यह अलग बात है; लेकिन इनमें कोसी की चर्चा का सीधा अर्थ यह निकलता है कि इन कृतियों के रचना-काल के समय कोसी अस्तित्ववान थी, पुण्यवती मानी जाती थी और सबसे बढ़कर यह कि इसके तटों पर लोगों का निवास था, राज्य भी बसे हुए थे।
कौशिकी तट पर विश्वामित्र तथा विभांडक और उनके पुत्र शृष्यशृंग के आश्रम थे। कौशिकी तथा कौशिकी-क्षेत्र में निम्नांकित तीर्थ थे-कुशिकाश्रम, कौशिकी, चंपकारण्य, ज्येष्टिल, कन्यासंवेद्य, निश्चीरा-संगम, वसिष्ठाश्रम, देवकूट शिखर, कौशिकहृद, वीराश्रम, अग्निधारा, पितामहसर, कुमारधारा, गौरीशंखर-शिखर, स्तनकुंड, ताम्रारुण, नंदिनी कूप, कालिकासंगम, उर्वशीतीर्थ, कुंभकर्णाश्रम तथा कोकामुख। इंद्र के नेतृत्व में ऋषियों एवं राजाओं का एक दल प्रभास तीर्थ से यात्रा आरंभ करके नाना तीर्थों का भ्रमण करते हुए कौशिकी-तीर्थ भी आया था। इस दल में भृगु, वसिष्ठ, गालव, कश्यप, गौतम, विश्वामित्र, जमदग्नि, अष्टक, भारद्वाज, अरुंधती और बालखिल्य ऋषि थे तथा राजाओं में शिव, दलीप, नहुष, अंबरीष, ययाति, धुंधुमार, पुरु आदि सम्मिलित थे। पद्मपुराण, वराहपुराण, मत्स्यपुराण, ब्रह्मांडपुराण, वायुपुराण, वामनपुराण, वायुपुराण, नारदीयपुराण, हरिवंशपुराण एवं विष्णुपुराण तथा कालिदासकृत 'कुमारसंभव' में भी कोसी नदी का नामोल्लेख और इसके विविध प्रसंगों का वर्णन मिलता है। पौण्ड्रराज वासुदेव सहित कौशिकीकच्छ के सभी राजाओं को भीम ने पराजित किया था। पंडित हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ ने अपनी पुस्तक 'बिहार की नदियाँ' (1977 ई.) में सांस्कृतिक भूगोल के अध्येताओं के लिए कौशिकी-तीर्थों की आधुनिक पहचान को एक चुनौतीपूर्ण कार्य माना है, तथापि उन्होंने काव्य-पुराणों के वर्णन के आधार पर इन तीर्थों के संभावित स्थल इंगित करने के प्रयत्न किए हैं।
कोकामुख तीर्थ (वराहक्षेत्र) और बद्री क्षेत्र के तीर्थों का विशद वर्णन वराहपुराण (अध्याय 140, श्लोक 12-90 तथा अध्याय 141, श्लोक 1-52) में प्राप्त होता है, जिसके अंतर्गत निम्नांकित तीर्थों के नामोल्लेख और स्थिति संकेत किए गए हैं-जलबिन्दु, विष्णुधारा, विष्णुपद, विष्णुसर, सोमतीर्थ, तुंगकूट, अग्निसर, ब्रह्मसर, धेनुवट, धर्मोद्भव, कोटिवट, पापप्रमोचन, यम व्यसनक, मातंगाश्रम, वज्रभव, शुकरुद्र, द्रष्टांकुर, विष्णुतीर्थ, त्रिसोतस, मत्स्यशिला, वराहतीर्थ, ब्रह्मकुंड, अग्निसत्यपद, इंद्रलोक, पंचशिख, वेदधार, द्वादशादित्य कुंड, लोकपाल, स्थल कुंड, सोमसमुद्भव, सोमगिरि, उर्वशी, मानसोद्भेद और सोमाभिषक। कालिदास के काव्य 'कुमारसंभव' (सर्ग 6, श्लोक 33) में भी कौशिकी तट को इंद्र, विष्णु, ब्रह्मा और शिव देवताओं के पारस्परिक मिलन का पूर्व निर्दिष्ट स्थल बताते हुए लिखा गया है कि कौशिकी तट पर साक्षात् भगवान शिव का निवास है।
Friday, December 11, 2009
कोसी नदी
बिहार की नदियों के गहन अध्येता पंडित हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ ने अपनी पुस्तक 'बिहार की नदियॉं' में लिखा है-”बिहार प्रदेश के उत्तरी सीमांचल को छूते ही कोसी अपनी प्रवाह-वेणी को बिखरा देती है और काली घटाओं जैसी अपनी अनेक धाराओं से सहरसा और पूर्णिया जिले में फैल जाती है। दरभंगा जिले के पूर्वी भाग से पूर्णिया जिले तक की 75 मील की भूमि में एक इंच भी ऐसी भूमि नहीं है, जहाँ कभी कोसी नदी की धारा न बही हो। इस 75 मील के चौड़े क्षेत्र में ‘कोसी’ अनेक बार पश्चिम से पूर्व की ओर गई और अनेक बार पूर्व से पश्चिम की ओर आई है। कोसी नदी पूरब में पूर्णिया, दिनाजपुर और मालदह जिलों को पार करती ‘बोगरा’ जिले में ब्रह्मपुत्र की धारा तक दौड़ लगा चुकी है और पश्चिम में कमला नदी की धारा तक आ चुकी है। इस प्रकार इसका आना-जाना हजारों वर्षों से जारी है।“
वस्तुतः कोसी भारत में सबसे ज्यादा पानी लानेवाली नदी है। दुनिया के सर्वाधिक ऊँचे पर्वतों से निकलनेवाली कोसी लोक में ही नहीं, पुराणों में भी अपनी विध्वंसक प्रवृत्ति के लिए ख्यात है-इसे बिहार/बंगाल का शोक भी कहा गया है। कोसी नदी की धाराएँ मध्य-पूर्व हिमालय के विशाल हिमनदों से प्रायः 7000 मीटर की ऊँचाई से अपनी यात्रा शुरू करती हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर 248 किलोमीटर तक विस्तृत सप्तकौशिकी के नाम से अभिहित कोसी की सात धाराएँ-इंद्रावती, सुन कोसी, तामा कोसी, लिक्खु (लिक्षु) कोसी, दूध कोसी, अरुण कोसी और तामर कोसी-नेपाल के धनकुट्टा जिले में स्थित चतरा से प्रायः दस किलोमीटर की दूरी पर त्रिवेणी नामक स्थान पर संगम करती हैं। इनमें सबसे लंबी धारा अरुण कोसी है, जो तिब्बती पठार के मध्य हिम सरोवर से निकलती है तथा तिब्बती पठार में ‘फूङ छू’ के नाम से लगभग 231 कि.मी. और नेपाल की भूमि में लगभग 123 कि.मी. की दूरी तय कर संगम तक पहुँचती है। लिक्खू कोसी सबसे छोटी धारा है, जो मात्रा 48 कि.मी. लंबी है और सोलूखुंबू जिले के एक ग्लेशियर से निकलती है। अरुण कोसी माउंट एवरेस्ट तथा तामर कोसी कंचनजंघा पर्वतमाला से पानी लाती है। पहली पाँचों धाराएँ गौरीशंकर शिखर तथा मकालू पर्वतमाला से होकर आती हैं और इनका सम्मिलित प्रवाह सुन कोसी कहलाता है, जिसके साथ अरुण और तामर कोसी का भी संगम हो जाने पर संगमित प्रवाह सप्तकोसी, महाकोसी अथवा कोसी कहलाता है। कोसी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 74,030 वर्ग कि.मी. है, जिसमें इसकी दो मुख्य सहायक नदियों-कमला (जलग्रहण क्षेत्र: 7232 वर्ग कि.मी.) तथा बागमती (जलग्रहण क्षेत्र: 14,384 वर्ग कि.मी.) के जलग्रहण क्षेत्र शामिल नहीं हैं।
त्रिवेणी संगम से नेपाल में प्रायः 50 कि.मी. की दूरी तय कर भारत-नेपाल सीमा पर अवस्थित हनुमान नगर (कोसी का पश्चिमी किनारा) और भीमनगर (कोसी का पूर्वी किनारा) गाँवों के पास से महाकोसी भारत में प्रवेश करती है। इसकी विध्वंसक परिवर्तनशीलता को नियंत्रित करने के लिए 1965 ई. में भीमनगर में बराज बनाया गया है, जिसके 56 फाटकों से महाकोसी के पानी को दो तटबंधों के बीच छोड़ा जाता है। भीमनगर के बाद कोसी निर्मली से उत्तर पिपराही के पास तिलयुगा से संगम कर आगे बढ़ती है और घोघरडीहा रेलवे स्टेशन के पास तरडीहा नामक स्थान पर भूतही बलान और बलान की सम्मिलित धाराएँ कोसी में आ मिलती हैं। दोनों तटबंध समाप्त होते ही पश्चिम से कमला-जीवछ नदी तथा पूरब से धेमुरा की धारा से कोसी का संगम होता है। यहाँ से कोसी पूरब की ओर बढ़ती है तथा रास्ते में घघरी के प्रवाह को अपनी चपेट में लेते हुए मानसी-सहरसा रेलवे लाइन को पार कर कुरसेला के पास गंगा नदी में मिल जाती है। भीमनगर से कुरसेला तक का कोसी का यह प्रवाह-मार्ग प्रायः 200 कि.मी. का है। (कोसी की धाराओं और वर्तमान प्रवाह-मार्ग से संबंधित सूचनाएँ दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'कोसी नदी की कहानी' तथा ओमप्रकाश भारती की पुस्तक 'नदियाँ गाती हैं' में वर्णित विवरण के आधार पर दी गई हैं।)
मार्ग-परिवर्तनशीला होने के कारण विभिन्न कालखंडों में कोसी के प्रवाह-मार्ग भिन्न-भिन्न रहे हैं। इन प्रवाह-मार्गों के अवशेष आज भी कोसी की विभिन्न छाड़न धाराओं के रूप में मौजूद हैं। दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी पुस्तक 'कोसी नदी की कहानी: दुइ पाटन के बीच में' (2006 ई.) में पूरब से पश्चिम इन पंद्रह धाराओं की पहचान निम्नांकित नामों से की है-परमान या पनार धारा, भेंसना कोसी, कजरी/कारी या काली कोसी, दुलारदेई या सौरा कोसी, कमला कोसी, लिबरी कोसी, धमदाहा कोसी, हिरन कोसी, धौस कोसी, लोरम कोसी, धंसान कोसी, तिलावे कोसी, धेमुरा धार, सोहराइन कोसी तथा तिलयुगा।
कोसी का वर्तमान प्रवाह-मार्ग तटबंध के भीतर प्रारंभ में बैती (पश्चिमी) और धेमुरा (पूर्वी धारा) की धाराओं का है। जो इसकी 1954 ई. की स्थिति है। इसके पहले 1922 ई. में कोसी का प्रवाह-मार्ग परवाने धारा थी, जिसके कारण सहरसा-सुपौल का क्षेत्र कोसी के पश्चिम में था। 1892 ई. में कोसी का प्रवाह-मार्ग इसकी सुरसर धारा थी, जिसके कारण मधेपुरा का भी एक बड़ा हिस्सा कोसी के पश्चिम था। 1840 ई. में कोसी का प्रवाह-मार्ग इसकी हइया धारा थी, जिसके कारण मधेपुरा का संपूर्ण क्षेत्र इसके पश्चिम में था। 1807 ई. में लच्छा धार, 1770 में लिबरी धार, 1737 में काली कोसी और 1704 ई. में सउरा धार इसका प्रवाह-मार्ग रहीं, जिसके कारण पूर्णिया और कटिहार का भी एक बड़ा हिस्सा कोसी के पश्चिम में रहा। इसी तरह कोसी के गंगा में संगमन का क्षेत्र भी भागलपुर के सामने गंगा के बाएँ किनारे स्थित शिवकुंड (खरीक रेलवे स्टेशन के पास) से लेकर मनिहारी (कटिहार) तक लगभग 70 मील विस्तृत है।