बिहार की नदियों के गहन अध्येता पंडित हवलदार त्रिपाठी ‘सहृदय’ ने अपनी पुस्तक 'बिहार की नदियॉं' में लिखा है-”बिहार प्रदेश के उत्तरी सीमांचल को छूते ही कोसी अपनी प्रवाह-वेणी को बिखरा देती है और काली घटाओं जैसी अपनी अनेक धाराओं से सहरसा और पूर्णिया जिले में फैल जाती है। दरभंगा जिले के पूर्वी भाग से पूर्णिया जिले तक की 75 मील की भूमि में एक इंच भी ऐसी भूमि नहीं है, जहाँ कभी कोसी नदी की धारा न बही हो। इस 75 मील के चौड़े क्षेत्र में ‘कोसी’ अनेक बार पश्चिम से पूर्व की ओर गई और अनेक बार पूर्व से पश्चिम की ओर आई है। कोसी नदी पूरब में पूर्णिया, दिनाजपुर और मालदह जिलों को पार करती ‘बोगरा’ जिले में ब्रह्मपुत्र की धारा तक दौड़ लगा चुकी है और पश्चिम में कमला नदी की धारा तक आ चुकी है। इस प्रकार इसका आना-जाना हजारों वर्षों से जारी है।“
वस्तुतः कोसी भारत में सबसे ज्यादा पानी लानेवाली नदी है। दुनिया के सर्वाधिक ऊँचे पर्वतों से निकलनेवाली कोसी लोक में ही नहीं, पुराणों में भी अपनी विध्वंसक प्रवृत्ति के लिए ख्यात है-इसे बिहार/बंगाल का शोक भी कहा गया है। कोसी नदी की धाराएँ मध्य-पूर्व हिमालय के विशाल हिमनदों से प्रायः 7000 मीटर की ऊँचाई से अपनी यात्रा शुरू करती हैं। पश्चिम से पूर्व की ओर 248 किलोमीटर तक विस्तृत सप्तकौशिकी के नाम से अभिहित कोसी की सात धाराएँ-इंद्रावती, सुन कोसी, तामा कोसी, लिक्खु (लिक्षु) कोसी, दूध कोसी, अरुण कोसी और तामर कोसी-नेपाल के धनकुट्टा जिले में स्थित चतरा से प्रायः दस किलोमीटर की दूरी पर त्रिवेणी नामक स्थान पर संगम करती हैं। इनमें सबसे लंबी धारा अरुण कोसी है, जो तिब्बती पठार के मध्य हिम सरोवर से निकलती है तथा तिब्बती पठार में ‘फूङ छू’ के नाम से लगभग 231 कि.मी. और नेपाल की भूमि में लगभग 123 कि.मी. की दूरी तय कर संगम तक पहुँचती है। लिक्खू कोसी सबसे छोटी धारा है, जो मात्रा 48 कि.मी. लंबी है और सोलूखुंबू जिले के एक ग्लेशियर से निकलती है। अरुण कोसी माउंट एवरेस्ट तथा तामर कोसी कंचनजंघा पर्वतमाला से पानी लाती है। पहली पाँचों धाराएँ गौरीशंकर शिखर तथा मकालू पर्वतमाला से होकर आती हैं और इनका सम्मिलित प्रवाह सुन कोसी कहलाता है, जिसके साथ अरुण और तामर कोसी का भी संगम हो जाने पर संगमित प्रवाह सप्तकोसी, महाकोसी अथवा कोसी कहलाता है। कोसी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 74,030 वर्ग कि.मी. है, जिसमें इसकी दो मुख्य सहायक नदियों-कमला (जलग्रहण क्षेत्र: 7232 वर्ग कि.मी.) तथा बागमती (जलग्रहण क्षेत्र: 14,384 वर्ग कि.मी.) के जलग्रहण क्षेत्र शामिल नहीं हैं।
त्रिवेणी संगम से नेपाल में प्रायः 50 कि.मी. की दूरी तय कर भारत-नेपाल सीमा पर अवस्थित हनुमान नगर (कोसी का पश्चिमी किनारा) और भीमनगर (कोसी का पूर्वी किनारा) गाँवों के पास से महाकोसी भारत में प्रवेश करती है। इसकी विध्वंसक परिवर्तनशीलता को नियंत्रित करने के लिए 1965 ई. में भीमनगर में बराज बनाया गया है, जिसके 56 फाटकों से महाकोसी के पानी को दो तटबंधों के बीच छोड़ा जाता है। भीमनगर के बाद कोसी निर्मली से उत्तर पिपराही के पास तिलयुगा से संगम कर आगे बढ़ती है और घोघरडीहा रेलवे स्टेशन के पास तरडीहा नामक स्थान पर भूतही बलान और बलान की सम्मिलित धाराएँ कोसी में आ मिलती हैं। दोनों तटबंध समाप्त होते ही पश्चिम से कमला-जीवछ नदी तथा पूरब से धेमुरा की धारा से कोसी का संगम होता है। यहाँ से कोसी पूरब की ओर बढ़ती है तथा रास्ते में घघरी के प्रवाह को अपनी चपेट में लेते हुए मानसी-सहरसा रेलवे लाइन को पार कर कुरसेला के पास गंगा नदी में मिल जाती है। भीमनगर से कुरसेला तक का कोसी का यह प्रवाह-मार्ग प्रायः 200 कि.मी. का है। (कोसी की धाराओं और वर्तमान प्रवाह-मार्ग से संबंधित सूचनाएँ दिनेश कुमार मिश्र की पुस्तक 'कोसी नदी की कहानी' तथा ओमप्रकाश भारती की पुस्तक 'नदियाँ गाती हैं' में वर्णित विवरण के आधार पर दी गई हैं।)
मार्ग-परिवर्तनशीला होने के कारण विभिन्न कालखंडों में कोसी के प्रवाह-मार्ग भिन्न-भिन्न रहे हैं। इन प्रवाह-मार्गों के अवशेष आज भी कोसी की विभिन्न छाड़न धाराओं के रूप में मौजूद हैं। दिनेश कुमार मिश्र ने अपनी पुस्तक 'कोसी नदी की कहानी: दुइ पाटन के बीच में' (2006 ई.) में पूरब से पश्चिम इन पंद्रह धाराओं की पहचान निम्नांकित नामों से की है-परमान या पनार धारा, भेंसना कोसी, कजरी/कारी या काली कोसी, दुलारदेई या सौरा कोसी, कमला कोसी, लिबरी कोसी, धमदाहा कोसी, हिरन कोसी, धौस कोसी, लोरम कोसी, धंसान कोसी, तिलावे कोसी, धेमुरा धार, सोहराइन कोसी तथा तिलयुगा।
कोसी का वर्तमान प्रवाह-मार्ग तटबंध के भीतर प्रारंभ में बैती (पश्चिमी) और धेमुरा (पूर्वी धारा) की धाराओं का है। जो इसकी 1954 ई. की स्थिति है। इसके पहले 1922 ई. में कोसी का प्रवाह-मार्ग परवाने धारा थी, जिसके कारण सहरसा-सुपौल का क्षेत्र कोसी के पश्चिम में था। 1892 ई. में कोसी का प्रवाह-मार्ग इसकी सुरसर धारा थी, जिसके कारण मधेपुरा का भी एक बड़ा हिस्सा कोसी के पश्चिम था। 1840 ई. में कोसी का प्रवाह-मार्ग इसकी हइया धारा थी, जिसके कारण मधेपुरा का संपूर्ण क्षेत्र इसके पश्चिम में था। 1807 ई. में लच्छा धार, 1770 में लिबरी धार, 1737 में काली कोसी और 1704 ई. में सउरा धार इसका प्रवाह-मार्ग रहीं, जिसके कारण पूर्णिया और कटिहार का भी एक बड़ा हिस्सा कोसी के पश्चिम में रहा। इसी तरह कोसी के गंगा में संगमन का क्षेत्र भी भागलपुर के सामने गंगा के बाएँ किनारे स्थित शिवकुंड (खरीक रेलवे स्टेशन के पास) से लेकर मनिहारी (कटिहार) तक लगभग 70 मील विस्तृत है।
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