Wednesday, April 20, 2011

रीति कवि जयगोविन्द महाराज

श्रीनगर-बनैली के राज्याश्रित कवियों में जयगोविन्द महाराज का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मिश्र बंधुओं ने भी अपनी पुस्तक मिश्रबंधु-विनोद में उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। उन्होंने उनका जन्म 1910 वि. (1843 ई.) और निधन: 1970 वि. (1913 ई.) बताया है। जयगोविन्द महाराज पूर्णिया के बरौरा (श्रीनगर) ग्राम निवासी ब्रह्मभट्ट थे। उनके राजा कमलानंद सिंह ‘साहित्य-सरोज’ (1865-1903 ई.) तथा उनके सगे भाई कुमार कालिकानंद सिंह के आश्रित होने का उल्लेख मिलता है। राजा कमलानंद सिंह के निधन के बाद वे मदारीचक, कटिहार आकर बस गए, जहाँ उनका निधन 1915 ई. के नवंबर महीने (बड़हरा कोठी, पूर्णिया-निवासी अध्यापक रामनारायण सिंह ‘आनंद’ के अनुसार, जो उनकी वृद्धावस्था में उनके निरंतर संपर्क में थे) में हुआ था।
जयगोविन्द महाराज ने 1940 वि. में काव्य-रचना का विधिवत श्रीगणेश किया था। वे रीतिकालीन परंपरा के कवि थे। पिंगल, अलंकार, नायिका-भेद, रस, गुण आदि पर उनका पूरा अधिकार था। उनकी रचनाएँ प्रायः सरस और प्रसाद गुणयुक्त ब्रजभाषा में हैं, जो प्रकृति-चित्राण और भक्ति भावना से ओतप्रोत हैं। वे परम वैष्णव और गीता के अनन्य भक्त एवं उपासक थे। काव्य-सुधाकर (पटना), व्यास पत्रिका और रसिकमित्र (कानपुर, 1898 ई.) में उनकी रचनाएँ एवं समस्यापूर्तियाँ छपा करती थीं। उनके द्वारा लिखित निम्नांकित अप्रकाशित कृतियों का उल्लेख मिलता है-साहित्य पयोनिधि, अलंकार-आकर, कविता-कौमुदी, समस्यापूर्ति और दुर्गाष्टक। अलंकार-आकर की पांडुलिपि का पूर्णिया निवासी साहित्यरत्न रूपलाल के निजी संग्रह में सुरक्षित होने का उल्लेख मिलता है।

Thursday, October 21, 2010

भक्‍त कवि लक्ष्‍मीनाथ परमहंस

भक्ति साहित्य की परंपरा में वर्तमान सुपौल जिलांतर्गत परसरमा ग्राम में 1788 ई. में जन्मे लक्ष्मीनाथ परमहंस का कृतित्व महत्त्वपूर्ण है। उन्हें लक्ष्मीनाथ गोसाईं, लक्ष्मीपति, गोस्वामी लक्ष्मीनाथ, गोस्वामी लक्ष्मीपति परमहंस नामों से भी जाना जाता है। कविताओं में उनके लखन और लक्षन नाम भी मिलते हैं। वे एक सिद्ध योगी, तांत्रिक, अद्वैत वेदांती और समाजसेवी थे तथा उन्होंने अपनी काव्य-रचना के माध्यम से ज्ञान एवं भक्ति-उपासना में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है।
साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की ‘भारतीय साहित्य निर्माता’ शृंखला के अंतर्गत मैथिली में प्रकाशित 'लक्ष्मीनाथ गोसाँइ' शीर्षक विनिबंध (2000 ई.) के लेखक खुशीलाल झा ने लक्ष्मीनाथ परमहंस के अवदान का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-”कबीरदास की तरह लक्ष्मीनाथ गोसाँई न तो पूरी तरह निर्गुण ब्रह्म में निमग्न हुए और न ही तुलसीदास की तरह सगुण ब्रह्म के प्रबल समर्थक। वे ब्रह्म के दोनों स्वरूपों में अभेद-संबंध के समर्थक थे।’’ (पृ. 49 के उद्धरण का हिन्दी अनुवाद)
लक्ष्मीनाथ परमहंस की रचनाओं में उनकी गीतावली, दोहावली, भजन और अनुवाद शामिल हैं। उन्होंने लगभग पाँच हजार भजनों की रचना की थी। वे एक रस-सिद्ध कवि थे। उनकी रचनाओं की भाषा सरल-सहज खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा या मैथिली है। उनकी समस्त भजनावली लोकधुन पर आधारित और गेय है। यद्यपि उनका उद्देश्य काव्य-कौशल का प्रदर्शन नहीं था, तथापि उनकी रचनाओं में प्रायः समस्त काव्यशास्त्राीय तत्त्व मिलते हैं। उनका संपूर्ण रचनाकर्म ब्रह्मास्वाद-सहोदर रस के रसास्वादन का प्रतिफल है।
लक्ष्मीनाथ परमहंस की मौलिक कृतियाँ हैं--श्रीराम गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, श्रीराम रत्नावली, अकारादि दोहावली, गुरु चैबीसी, परमहंस भजन-सार, योग-रत्नावली, महेशवाणी, निर्गुणवाणी, संग्रह गीतावली, हठयोग, मोहमुद्गर और वंदी मोचन; जबकि अनुवाद-कृतियाँ हैं--श्रीकृष्ण रत्नावली, भाषा तत्त्वबोध, प्रश्नोत्तर रत्नमणि माला। गुरु पचीसी, जीवन-चरित तथा वाजसनेयोपनिषद (हिन्दी अनुवाद) नामक कृतियों का उल्लेख भी उनके नाम से मिलता है।
लक्ष्मीनाथ परमहंस के परम शिष्य जॉन क्रिश्चियन ने उनकी दोहावली और गीतावली की एक पांडुलिपि ‘वृहत् ग्रंथावली’ के नाम से तैयार की थी, जो मैथिली के प्रख्यात विद्वान और साहित्यकार डॉ. सुभद्र झा के निजी संग्रह में थी। लक्ष्मीनाथ की पहली प्रकाशित कृति विवेकरत्नावली है, जो. पं. केशवलाल झा द्वारा संपादित तथा राधाप्रेस, भागलपुर से 1922 ई. में मुद्रित है। इसी ग्रंथ का दूसरा संस्करण विवेक पंचरत्न के नाम से पं. छेदी झा द्विजवर द्वारा संपादित लक्ष्मीनाथ साहित्य प्रकाशन मंडल, वनगाँव, सहरसा से प्रकाशित और सहयोग प्रेस, सुपौल से मुद्रित है। इसमें लक्ष्मीनाथ की पाँच दोहावलियाँ--प्रश्नोत्तर रत्न मणिमाला, अकारादि दोहावली, भाषा तत्त्वबोध, श्रीराम रत्नावली और गुरु चौबीसी संकलित हैं। इनमें से प्रश्नोत्तर रत्नमणिमाला शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तर का भाषानुवाद तथा भाषा तत्त्व बोध शंकराचार्य की ही कृति तत्त्वबोध का आंशिक अनुवाद है। अकारादि दोहावली में 54 दोहे हैं, जो क्रमशः हिन्दी वर्णमाला के ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ अक्षरों से आरंभ होते हैं। इस कृति के प्रारंभिक दोहों में हठयोग और उसके विविध आयामों तथा उत्तरार्द्ध के दोहों में वेदांत-दर्शन के रहस्यों का उद्घाटन किया गया है। यह कृति योग के साथ वेदांत-दर्शन के समन्वय का प्रयत्न करती है। श्रीराम रत्नावली में कुल 111 दोहे हैं। इसका प्रथम दोहा मंगलाचरण एवं गुरु-वंदना का समन्वित रूप है। शेष 110 दोहे ‘राम’ शब्द से ही शुरू होते हैं तथा प्रत्येक दोहे में लेखक का नामोल्लेख ‘लक्षन’ या ‘लक्ष्मीपति’ के रूप में किया गया है। अंतिम दोहे में क्रमशः दोहावली की समाप्ति के वर्ष, माह, पक्ष और दिन का उल्लेख है, जिससे इसका रचनाकाल शक संवत 1756 के आषाढ़ की अमावस्या निर्धारित होती है। यह प्रायः उपदेशात्मक कृति है, जिसमें नीति संबंधी उपदेश, संत-महिमा तथा राम की चाकरी का बखान और आयुर्वेदीय उपचार का वर्णन मिलता है। गुरु चौबीसी में कुल 26 दोहे हैं, जिनके माध्यम से महात्मा दत्तात्रोय द्वारा 24 प्राकृतिक पदार्थों को गुरु मानकर सीख ग्रहण करने के उपदेश को अभिव्यक्ति दी गइ है।
लक्ष्मीनाथ परमहंस की दूसरी प्रकाशित कृति पंचरत्न गीतावली है, जिसकी भूमिका पं. अनंतलाल मिश्र ने लिखी है और जो बाबू उदित नारायण सिंह के आर्थिक सहयोग से तारा प्रिटिंग वक्र्स, मुंगेर से 1929 ई. में मुद्रित हुई है। इसमें लक्ष्मीनाथ की पाँच गीतावालियाँ श्रीरामगीतावली, श्रीकृष्णगीतावली, महेश वाणी, निर्गुण वाणी तथा संग्रह गीतावली संगृहीत हैं। इस ग्रंथ में कुल गीतों की संख्या 160 है। श्रीरामगीतावली में रामकथा से संबंधित प्रायः सभी प्रमुख एवं मार्मिक स्थलों का चयन कर क्रमबद्ध संयोजित किया गया है। यह कृति वाल्मीकीय रामायण, अध्यात्म रामायण और श्रीरामचरितमानस पर आश्रित है। श्रीकृष्णगीतावली में कृष्ण की गाथा संग्रथित है। यह श्रीमद्भागवत, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गीता और गीत गोविन्द पर आश्रित है। दोनों ही कृतियाँ गीति-मुक्तक में हैं, लेकिन इनका सु-योजित प्रबंधकत्व इनके महाकाव्यत्व की प्रतीति कराता है। कथा-कौशल की दृष्टि से लघु कलेवर में भी श्रीराम और श्रीकृष्ण के सुविस्तृत आख्यानों को इतने रोचक और आकर्षक ढंग से संयोजित किया गया है कि अपने क्षेत्र में ये मूलकृतियों से भी ज्‍यादा लोकप्रिय रहे हैं।
लक्ष्मीनाथ परमहंस की अन्य प्रकाशित कृतियों में गोस्वामी लक्ष्मीनाथ की पदावली (सं. ललितेश्वर झा, प्र. सं. 1951 ई.), लक्ष्मीनाथ गोसाँइक गीतावली (सं. पं. छेदी झा द्विजवर, प्र. सं. 1969 ई.) और परमहंस भजन-सार (सं. महावीर झा, प्र. सं. 1948 ई.) हैं। श्रीकृष्ण गीतावली के तीन संस्करण क्रमशः लक्ष्मीप्रसाद सिंह, उदितनारायण सिंह और जनार्दन झा द्वारा प्रकाशित कराए गए, लेकिन किसी पर प्रकाशन वर्ष अंकित नहीं है।

Wednesday, September 29, 2010

सूफी कवि शेख किफायत

यह एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि सिद्ध-परंपरा को जन्म देनेवाले कोसी अंचल में सूफी-काव्य और भक्ति-काव्य की कड़ियाँ भी मिलती हैं। पूर्णिया जिले के पूरब दमका नामक स्थान पर प्रसिद्ध सूफी कवि शेख़ किफायत का जन्म हुआ था। वे शाहजहाँ (1627-58 ई.) के पुत्र शाहशुजा के समकालीन थे। उनके पिता का नाम शेख़ मुहम्मद था। मुहम्मद आजम उनके पीर थे और गुरु मौलवी मुहम्मद। उनके देहावसान की अनुमानित तिथि 175 ई. है। उनकी कब्र दमका में ही है। ग्‍यारहवीं शरीफ को उनकी पुण्‍य तिथि मानकर हर साल उनकी बरसी मनाई जाती है। लगभग पच्चीस वर्ष की अवस्था में उनका परिचय नवाब सैफ ख़ाँ (पूर्णिया का नवाब, शासन काल: 1722-50 ई.) के मुसाहब शेख़ मुहम्मद शमी नामक विद्वान से हुआ और इनकी तथा नाजिरपुर वासी हजरत मियाँ की प्रेरणा से उन्होंने 'विद्याधर' नामक एक प्रेमाख्यान की रचना 1728 ई. में की थी। इसकी मूल कथा एक गायक से सुनी लोककथा पर आश्रित है। इसमें यत्र-तत्र सूफी प्रेमाख्यानों का उल्लेख भी मिलता है। यह पुस्‍तक फारसी की मसनवी शैली में लिखी गई है। इसमें सात अर्धालियों के बाद दोहा दिया गया है। कैथी लिपि में इस पुस्तक की एक हस्तलिखित प्रति पटना विश्वविद्यालय में विश्रुत शोधकर्ता एवं इतिहास के प्राध्यापक अस्करी साहब को मिली थी। यह पुस्तक उर्दू और हिन्दी लिपि में प्रकाशित हो चुकी है। उर्दू में इसका लिप्‍यंतर और प्रथम प्रकाशन मकबूल हुसैनी मकैली के संपादन में 1938 ई. में आलम प्रेस, किशनगंज से हुआ था। मु. शरफुद्दीन अंसारी द्वारा कैथी लिपि से हिन्दी में लिप्यंतरित इस कृति का नवीनतम संस्करण कमर शाँदा के संपादन में 1997 ई. में प्रकाशित हुआ है। 'विद्याधर' की रचना के बाद किफायतुल्‍ला ने 250 पृष्‍ठों की 'हीरालाल' नामक एक अन्‍य कृति की रचना भी की थी, जो इस्‍लाम के आध्‍यात्‍मिक चिंतन पर आधारित थी। वह कृति अनुपलब्‍ध है।

Tuesday, September 7, 2010

कोसी अंचल के राज्‍याश्रित कवि

राजा वेदानंद सिंह के दरबारी कवि श्यामसुंदर बाद में उनके सुपुत्र राजा लीलानंद सिंह के आश्रित भी रहे। गोपी महाराज भी राजा लीलानंद सिंह के दरबारी कवि थे। श्यामसुंदर और गोपी महाराज, दोनों ने ही अपनी काव्य-रचना की उत्कृष्टता के कारण पर्याप्त प्रसिद्धि पाई थी, पर उनकी रचनाओं के उदाहरण प्राप्त नहीं होते। कहते हैं कि एक बार राजा लीलानंद सिंह ने गोपी महाराज की काव्य-रचना पर प्रसन्न होकर दानस्वरूप एक हाथी दिया था, तब श्यामसुंदर ने निम्नांकित पंक्तियाँ निवेदित कीं-
अहो हंस अवतंस-मणि, यह अचरज मोहि भान।
गोपी हाथी पै चढ़े, पैदल सुंदर श्याम।।
उनकी इस उक्ति पर प्रसन्न होकर राजा साहब ने उन्हें भी पुरस्कार-स्वरूप एक हाथी दिया।
श्‍यामसुंदर के पूर्वज पंजाब-निवासी थे। वे महाराज माधवेन्‍द्र के भी आश्रित रहे थ। पं. सदानंद द्वारा कलकत्‍ते से प्रकाशित पत्रिका 'सारसुधानिधि' के मुखपृष्‍ठ पर श्‍यामसुंदर कवि द्वारा रचित मंगलाचरण ही प्रकाशित हुआ करता था, जो इस प्रकार था-
कुमुदरसिक मन मोदकरि, दरि दुख तम सर्वत्र।
जगपथ दरसावै अचल, सारसुधानिधि पत्र।।
आठ-दस अंक निकलने के बाद 'सारसुधानिधि' का प्रकाशन बंद हो गया, तो श्‍यामसुंदर जी ने पं. सदानंद को पत्र लिखा कि 'क्‍या कारण है कि कई सप्‍ताह से पत्र नहीं आता।' उन्‍होंने मजाक करते हुए उत्‍तर दिया कि 'आपने ऐसा मंगलाचरण बनाकर दिया कि पत्र का प्रकाशन ही बंद हो गया।' कवि श्‍यामसुंदर ने दोहे को ध्‍यान से देखा तो 'अचल सारसुधानिधि पत्र' वाले स्‍थान पर रुक गए। उन्‍हें विश्‍वास हो गया कि इसी दोष से पत्र बंद हो गया, और दोहे में अचल के स्‍थान पर विमल लिखकर भेज दिया। बाद में पत्र का प्रकाशन फिर शुरू हुआ और वर्षों तक निकलता रहा।
कवि श्‍यामसुंदर की एकमात्र प्रकाशित कृित 'लक्षण-वर्णन' का उल्‍लेख मिलता है। उनकी अन्‍य 28 कृतियों की पांडुलिपियॉं अवधपुर स्‍िथत भगवान पुस्‍तकालय में सुरक्षित हैं। 'हिन्‍दी साहित्‍य और बिहार' के चतुर्थ खंड (सं. बजरंग वर्मा एवं कामेश्‍वर शर्मा 'नयन', 1984 ई.) के अनुसार ये कृतियॉं हैं-'ऋतु-वर्णन', 'छंदसरोवर', 'चित्रकाव्‍यमद्य', 'गंगालहरी', 'ध्‍यानकल्‍याण', 'निर्णयछंद-प्रबंध', 'बारहमासा', 'कविप्रकाश', 'रस-वर्णन', 'वर्ण-विचार', 'अंतर्लापिका'श्रीनगर-बनैली के राज्याश्रित कवियों में जयगोविन्द महाराज का नाम सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। मिश्र बंधुओं ने भी अपनी पुस्तक मिश्रबंधु-विनोद में उनका संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत किया है। उन्होंने उनका जन्म 1910 वि. (1843 ई.) और निधन: 1970 वि. (1913 ई.) बताया है। जयगोविन्द महाराज पूर्णिया जिले के बरौरा (श्रीनगर) ग्राम निवासी ब्रह्मभट्ट थे। उनके राजा कमलानंद सिंह ‘साहित्य-सरोज’ (1865-1903 ई.) तथा उनके सगे भाई कुमार कालिकानंद सिंह के आश्रित होने का उल्लेख मिलता है। राजा कमलानंद सिंह के निधन के बाद वे मदारीचक, कटिहार आकर बस गए, जहाँ उनका निधन 1915 ई. के नवंबर महीने (बड़हरा कोठी, पूर्णिया-निवासी अध्यापक रामनारायण सिंह ‘आनंद’ के अनुसार, जो उनकी वृद्धावस्था में उनके निरंतर संपर्क में थे) में हुआ था।
जयगोविन्द महाराज ने 1940 वि. में काव्य-रचना का विधिवत श्रीगणेश किया था। वे रीतिकालीन परंपरा के कवि थे। पिंगल, अलंकार, नायिका-भेद, रस, गुण आदि पर उनका पूरा अधिकार था। उनकी रचनाएँ प्रायः सरस और प्रसाद गुणयुक्त ब्रजभाषा में हैं, जो प्रकृति-चित्रण और भक्ति भावना से ओतप्रोत हैं। वे परम वैष्णव और गीता के अनन्य भक्त एवं उपासक थे। 'काव्य-सुधाकर' (पटना), 'व्यास पत्रिका' और 'रसिकमित्र' (कानपुर, 1898 ई.) में उनकी रचनाएँ एवं समस्यापूर्तियाँ छपा करती थीं। उनके द्वारा लिखित निम्नांकित अप्रकाशित कृतियों का जिक्र मिलता है-'साहित्य पयोनिधि', 'अलंकार-आकर', 'कविता-कौमुदी', 'समस्यापूर्ति' और 'दुर्गाष्टक'। 'अलंकार-आकर' की पांडुलिपि का पूर्णिया निवासी साहित्यरत्न रूपलाल के निजी संग्रह में सुरक्षित होने का उल्लेख मिलता है।
महादेव उपाध्याय ‘शुभ कवि’, हनुमान कवि, भगवंत कवि और शीतल प्रसाद राजा कमलानंद सिंह के आश्रित कवियों में थे। ब्रजभाषा में लिखित इनकी स्फुट काव्य-रचनाएँ ही प्राप्त होती हैं। शुभ कवि की समस्यापूर्तियाँ और रचनाएँ 'रसिकमित्र' (कानपुर) में छपा करती थीं। हनुमान कवि ‘मानकवि’ के नाम से विख्यात थे। शीतल प्रसाद काशी के मूल निवासी थे, किन्तु श्रीनगर (पूर्णिया) के राजाश्रित कवि थे। भगवंत कवि (पूर्णियावासी) द्वारा ब्रजभाषा में रचित स्फुट काव्य-रचनाएँ 'काव्य-सुधाकर' पत्रिका में प्रकाशित मिलती हैं।

Friday, August 20, 2010

कोसी अंचल के शासक साहित्‍यकार


राजा दुलार सिंह चौधरी द्वारा स्थापित पूर्णिया स्थित बनैली राजवंश में साहित्यिक अभिरुचि निरंतर बनी रही है। बनैलीराज और इसकी दूसरी शाखा श्रीनगर राज--दोनों ही साहित्य-संस्कृति के प्रमुख पोषक-केन्द्र रहे हैं। राजपरिवार के सदस्यों ने जहाँ एक ओर स्वयं साहित्य-रचना कर यश प्राप्त किया, वहीं दूसरी ओर साहित्यकारों को राज्याश्रय देकर भी प्रोत्साहित किया। बनैली और इसकी शाखा श्रीनगर राज परिवारों के ऐसे सदस्यों में राजा वेदानंद सिंह, लीलानंद सिंह, कमलानंद सिंह, कालिकानंद सिंह, पद्मानंद सिंह, कीर्त्‍यानंद सिंह, कृष्णानंद सिंह और कुमार गंगानंद सिंह के नाम प्रमुख हैं।
पूर्णिया जिले के ‘फरकिया स्टेट’ के मालिक श्रोत्रिय मैथिल ब्राह्मण विजयगोविन्द सिंह ने भी स्फुट काव्य रचनाएँ की थीं। उनका जन्मकाल 1807-17 ई. के बीच अनुमानित है। 1857 ई. में अंग्रेजों ने उनकी रियासत से एक करोड़ रुपया कर्ज लिया था। उस समय उनकी रियासत का मैनेजर चार्ल्‍स पामर (Charles Palmer, कलकत्ते से पूर्णिया- आगमन 1911 ई., निधन: 1873 ई.) था। उसकी दगाबाजी के कारण उनकी रियासत नीलाम हो गई और पामर के कब्‍जे में आ गई। पामर की दगाबाजी से उद्वेलित होकर विजयगोविन्द सिंह ने एक कविता बनाई थी, जिसका अंतिम अंश था--‘पामर पामरता दिखलाई।’ इसी कविता में उन्होंने अपने विषय में निम्नांकित पंक्तियाँ लिखी थीं--
जनम भये दारिद्र कुल, पाछे नृपति कहाय।
फिर पाछे दारिद्र भो, विधिगति कही न जाय।।
विजयगोविन्द सिंह की एक पुस्तक 'दिल्लीनामा' का उल्लेख मिलता है, जिसकी हस्तलिखित प्रति राज-पुस्तकालय, दरभंगा में सुरक्षित होने का अनुमान है। यदि यह पुस्तक प्रकाश में लाई जाती है तो हिन्दी साहित्य के इतिहास का एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक दस्तावेज अध्येताओं को उपलब्ध हो सकता है।
राजा वेदानंद सिंह (1776-1851 ई.) एक सुयोग्य शासक, विख्यात मल्ल और कवि थे। नेपाल-युद्ध में ब्रिटिश सरकार की सहायता के नाते उन्हें ‘राजा’ की उपाधि प्राप्त हुई थी। बनैली राज्य की स्थापना और विस्तार का श्रेय उन्हें ही जाता है। हिन्दी में उन्होंने 'वेदानंद विनोद' नामक एक प्रामाणिक वैद्यक ग्रंथ लिखा था। उनके सुपुत्र राजा लीलानंद सिंह (निधन: 1883 ई.) के ज्येष्ठ पुत्र पद्मानंद सिंह (निधन: 1912 ई.) हिन्दी, उर्दू और फारसी में स्फुट काव्य-रचनाएँ किया करते थे। उनकी रचनाएँ प्रायः भक्तिपरक होती थीं।
लीलानंद सिंह के कनिष्ठ पुत्र राजा कीर्त्‍यानंद सिंह (जन्म: 22 सितंबर 1883 ई.; निधन: 19 जनवरी 1938 ई.) बिहार के राजपरिवारों में उच्च शिक्षा प्राप्त प्रथम स्नातक थे। वे एक निपुण ‘मोटरिस्ट’ और वैज्ञानिक विषयों एवं आखेट-विद्या के पूर्ण ज्ञाता थे। फुटबॉल, पोलो, टेनिस और बिलियर्ड के श्रेष्ठ खिलाड़ी होने के साथ-साथ वे एक संगीतज्ञ, आखेट-वीर, दानवीर एवं हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत भाषाओं के अन्यतम विद्वान थे। वे प्रांत की अनेकानेक प्रमुख संस्थाओं एवं समितियों के अध्यक्ष तथा बंगाल विधान-परिषद् एवं बिहार-उड़ीसा विधान परिषद् के अनेक वर्षों तक सदस्य रहे। भोजपुरी गीत ‘बटोहिया’ के अमर गायक एवं कवि रघुवीर नारायण उनके निजी सचिव थे। कीर्त्‍यानंद सिंह ने हिन्दू विश्वविद्यालय को एक लाख रुपए तथा टी.एन.जे. कॉलेज (अब टी.एन.बी. कॉलेज), भागलपुर को पाँच लाख रुपए का दान दिया था। यद्यपि उनकी एकमात्र प्रकाशित पुस्तक 'पूर्णिया: ए शिकारलैण्ड' अंग्रेजी में है, तथापि उन्होंने हिन्दी में भी लेखन कार्य किया था, जो विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था। उनकी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद डॉ. लक्ष्मीनारायण सुधांशु ने 'गंगा' में प्रकाशित कराया था। वे 1913 ई. में आयोजित चतुर्थ अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भागलपुर अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष तथा 1924 ई. में मुजफ्फरपुर में आयोजित बिहार प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभाध्यक्ष थे। पटना स्थित बिहार-हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन का विशाल भवन उनके ही नाम पर स्थापित है।
राजा वेदानंद सिंह के भतीजे राजा श्रीनंद सिंह के सुपुत्र राजा कमलानंद सिंह (जन्म: 27 मई 1876 ई., निधन: चैत्र शुक्ल षष्ठी, 1967 वि./1910 ई.) यशस्वी शासक और साहित्यकार थे। उनके राज्याश्रित कवियों की संख्या बहुत बड़ी थी। विभिन्न साहित्यिक आयोजनों, पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों के प्रकाशन में आर्थिक सहयोग के अलावा वे लेखकों को उनकी श्रेष्ठ पुस्तकों के लिए व्यक्तिगत रूप से पुरस्कार राशियाँ भी भेंट किया करते थे। स्वनामधन्य हिन्दी कवि और संपादक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने जून, 1903 ई. की सरस्वती पत्रिका में उनकी जीवनी लिखी थी। पं. श्रीकांत मिश्र द्वारा रचित 15 सर्गों में सुगठित संस्कृत काव्य 'साम्बकमलानन्द-कुलरत्न' में उनके पितृवंश और मातृवंश का वर्णन है। उनकी संपूर्ण उपलब्ध रचनाओं का संकलन 'सरोज रचनावली' के रूप में पुस्तक भंडार, पटना से प्रकाशित है, जिसका संपादन हिन्दी के यशस्वी संपादक आचार्य शिवपूजन सहाय ने किया था।
राजा कमलानंद सिंह का नाम द्विवेदीयुगीन साहित्यकारों में महत्त्वपूर्ण है। वे ब्रजभाषा मैथिली और खड़ी बोली में समान अधिकार से काव्य-रचना करते थे। खड़ी बोली गद्य रचना में भी वे सिद्धहस्त थे। इसके अलावा उन्होंने बाङ्ला और अंग्रेजी रचनाओं के सफल अनुवाद भी प्रस्तुत किए। उनकी काव्य-रचना से प्रभावित होकर तत्कालीन ‘कवि-समाज’ ने उन्हें ‘साहित्य सरोज’ की उपाधि प्रदान की थी। अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के संरक्षक होने के नाते ‘कवि मंडली’ ने उन्हें ‘द्वितीय भोज’ की उपाधि दी। भारत-धर्म-महामंडल (काशी) ने उन्हें ‘कवि-कुलचंद्र’ की उपाधि से अलंकृत किया था। वे हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं 'रसिकमित्र' एवं 'सरस्वती' और मैथिली पत्रिका 'मिथिला मिहिर' के नियमित लेखक थे। उनकी मौलिक कृतियों में 'मिथिला-चंद्रास्त' (1899 ई.) 'श्रीएडवर्डबत्तीसी' (1902 ई.), 'वोट बत्तीसी' (1909 ई.) और 'हा! व्यास शोक-प्रकाश' (1910 ई.) शामिल हैं। बाङ्ला कथाकार बंकिमचंद्र चटर्जी और कवि माइकेल मधुसूदन दत्त की अनेक रचनाओं के हिन्दी अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किए, जिनमें 1903 ई. में अनूदित बंकिमचंद्र का प्रसिद्ध उपन्यास 'आनंदमठ' (1906 ई. डायमंड जुबली प्रेस, कानपुर से प्रकाशित) तथा माइकेल मधुसूदन दत्त कृत्त 'वीरांगना-काव्य' (1907 ई. में सरस्वती में काव्यांश प्रकाशित) प्रमुख हैं, जो इन कृतियों के प्रथम हिन्दी अनुवाद हैं।
राजा कमलानंद सिंह के सुपुत्रा कुमार गंगानंद सिंह (जन्म: 24 सितंबर 1898 ई., निधन: 17 जनवरी 1970 ई.) भी हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी और मैथिली भाषाओं के अन्यतम विद्वान और लेखक थे। वे एक प्रतिष्ठित शिक्षाशास्त्री और राजनेता थे। विभिन्न शैक्षिक, साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक संस्थाओं से वे जीवनपर्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिकाओं में सक्रिय संबद्ध रहे। कलकत्ता विश्वविद्यालय से 1921 ई. में ‘भारतीय इतिहास एवं संस्कृति’ विषय में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर उन्होंने वहीं पुरातत्त्व विभाग में भरहुत-शिलालेखों पर शोध-अनुसंधान का कार्य किया। बाद में रॉयल सोसायटी ऑव ग्रेट ब्रिटेन एंड आयरलैंड, रॉयल एशियाटिक सोसायटी, बंगाल एशियाटिक सोसायटी, बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी आदि संस्थाओं से जुड़कर उन्होंने महत्त्वपूर्ण अनुसंधान कार्य किए। एक राजनेता के रूप में वे अखिल भारतीय हिंदू महासभा और अखिल भारतीय काँग्रेस से संबद्ध रहे। उन्होंने 1923-30 ई. तक भारत की केन्द्रीय व्यवस्थापिका सभा के निर्वाचित सदस्य, 1937-52 ई. तक विधान परिषद में विरोधी पक्ष के उपनेता और नेता, 1957-62 ई. तक बिहार के शिक्षामंत्री, 1964-65 ई. तक बिहार विधान परिषद के अध्यक्ष तथा 1966 ई. से जीवनपर्यंत श्री कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में सक्रिय कार्य किया।
कुमार गंगानंद सिंह की मैथिली, हिन्दी एवं अंग्रेजी में लिखित रचनाएँ--निबंध, कहानी, भाषण, कविता आदि गंगा, अभ्युदय, हिंदूपंच (हिन्दी); मिथिला मिहिर, स्वदेश (मैथिली), इंडियन नेशन (अंग्रेजी) आदि पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होती रहीं। उनकी मैथिली में लिखित रेखाचित्रात्मक उपन्यासिका 'अगिलही' और छह अन्य कहानियाँ डॉ. शैलेन्द्रमोहन झा के संपादन में 'अगिलही ओ अन्यकथा' नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हैं। उनके द्वारा लिखित ‘जीवन-संघर्ष’ शीर्षक एकांकी (स्वदेश, मासिक, 1948 में प्रकाशित) मैथिली के आधुनिक एकांकी साहित्येतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। डॉ. गौरीकांत झा ने पटना विश्वविद्यालय में ‘आधुनिक मैथिली साहित्य मे कुमार गंगानंद सिंहक योगदान’ विषयक शोधप्रबंध प्रस्तुत किया था। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली की ‘भारतीय साहित्य निर्माता’ शृंखला के अंतर्गत सुरेन्द्र झा ‘सुमन’ द्वारा लिखित मैथिली विनिबंध 'कुमार गंगानंद सिंह' (1991 ई.) भी इनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को उजागर करनेवाली महत्त्वपूर्ण कृति है।

Tuesday, July 13, 2010

कोसी अंचल में कवि चंदवरदाई की पंद्रह पीढि़यॉं

कोसी अंचल के साहित्यिक विरासत की कडि़यॉ 'पृथ्‍वीराज रासो' के यश:कायी कवि चंदवरदाई से भी जुड़ती हैं। कवि चंद के पुत्र जल्‍ह राजौरगढ़ किले में रहते थे। उन्‍हीं के वंश में सोनकवि हुए थे, जो सोलहवीं शती में राजस्‍थान से बिहार चले आए थे और मिथिला नरेशों के राज्‍याश्रित कवि थे। वर्तमान सुपौल जिले के परसरमा ग्राम में निवास करते हुए हुए चंद कवि के वंशज कवि मिथिला राज के राज्‍याश्रय में बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध तक पंद्रह पीढि़यों तक काव्‍य रचना करते रहे और साहित्‍य भंडार को समृद्ध करते रहे।
सोनकवि सोलहवीं शती में हुए, जिनकी कविताएँ 'मिथिला-राज्यप्राप्ति-कवितावली' (पं. जगदीश कवि, 1921 ई.) में संगृहीत हैं। वे क्रमशः मिथिला के महेश ठाकुर, गोपाल ठाकुर, अच्युत ठाकुर आदि नरेशों के दरबार में थे, जिन पर लिखी उनकी कुछ कविताएँ मिलती हैं। वे ब्रजभाषा और अवधी में काव्य-रचना किया करते थे। सोन कवि के वंश में बीसवीं शती तक 13 अन्य कवियों-हेमकवि, गणेश, प्रभाकर, श्याम, गोविन्द कवि, कृष्ण कवि (पं. श्रीबुच), विश्वनाथ, डोमन, हेमन, कृष्णा कवि, ऋतुराज कवि, अचल कवि (अच्युतानंद) और जगदीश कवि के जन्म का उल्लेख मिलता है, जिनमें से कई का साहित्यिक अवदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
हेम कवि बहुत दिनों तक शुभंकर ठाकुर, पुरुषोत्तम ठाकुर, नारायण ठाकुर, सुंदर ठाकुर, महीनाथ ठाकुर आदि मिथिला नरेशों के दरबार में क्रमशः रहकर ब्रजभाषा में कविता करते रहे। उनकी कविताएँ 'मिथिला-राज्यप्राप्ति-कवितावली' में संगृहीत हैं।
कृष्ण कवि का उपनाम ‘पं. श्री बुच’ था। उनके पिता का नाम गोविन्द कवि था। वे मिथिला-नरेश राघव सिंह (1704-40 ई.) के दरबार में रहते थे, जिन्होंने भूपसिंह नामक जमींदार से युद्ध में नेपाल-तराई के परगना पंचमहला को जीतकर अपने अधीन किया था। इसी युद्ध का वर्णन उनकी पुस्तक 'राघव-विजयावली' (पं. श्री जगदीश कवि द्वारा संपादित, सन् 1328 फसली) में मिलता है। वे मैथिली के साथ-साथ ब्रजभाषा में भी काव्य-रचना किया करते थे।
हेमन कवि के पुत्र कृष्णाकवि मिथिला नरेश महाराज महेश्वर सिंह के आश्रित कवि थे। वे एक कृष्णभक्त और अच्छे कवि थे। उनकी कविताएँ ब्रजभाषा में मिलती हैं। कहते हैं, सौरिया (पूर्णिया) के राजा महाराज विजयगोविन्द सिंह और उनकी रानी इंद्रावती ने उन्हें मोती-विरदह (सहरसा) में 51 बीघा जमीन उनकी कवि-प्रतिभा पर मुग्ध होकर दिया था। वे प्रायः 107 वर्ष की अवस्था तक जीवित रहे। कृष्णाकवि के चचेरे भाई ऋतुराज कवि (जन्म : 1788 ई.) द्वारा ब्रजभाषा में रचित स्फुट रचनाएँ भी मिलती हैं।
कृष्णकवि के पुत्र अचल कवि (अच्युतानंद) की गणना लक्ष्मीनाथ परमहंस के परम प्रिय शिष्यों में होती है। मृदंगाचार्य और योगी के रूप में भी उनकी ख्याति थी। वे रायबहादुर लक्ष्मीनारायण सिंह (पंचगछिया) के भी प्रथम गुरु कहे गए हैं। 107 वर्ष की आयु तक जीवित रहनेवाले अचल कवि मिथिला-नरेश महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह के दरबारी कवि थे। ब्रजभाषा और मैथिली में उनकी स्फुट रचनाएँ उपलब्ध हैं। उनकी ख्याति भक्त-कवि के रूप में थी।
सोनकवि की चौदहवीं पीढ़ी अचल कवि के सुपुत्र जगदीश कवि (जन्‍म : 1866 ई., परसरमा, सुपौल) भी दरभंगा-महाराज रमेश्‍वर सिंह के राज्‍याश्रित रहे। उन्‍होंने लछीराम कवि (अयोध्‍यानरेश प्रताप सिंह के आश्रित) से काव्‍य-रचना, महामहोपाध्‍याय पंडित शिवकुमार शास्‍त्री से व्‍याकरण और महामहोपाध्‍याय पंडित गंगाधर शास्‍त्री से साहित्‍य की शिक्षा पाई थी। बाद में उन्‍होंने व्‍याकरण और साहित्‍य दोनों ही विषयों में 'आचाय' की उपाधि प्राप्‍त कर ली थी। उन्‍होंने 1884 ई. से ही काव्‍य-रचना आरंभ कर दी थी। वे ब्रजभाषा, मैथिली और खड़ी बोली हिन्‍दी में रचना किया करते थे। दरभंगा-महाराज और पंडित मदनमोहन मालवीय के साथ उन्‍होंने देश की अनेक रियासतों की यात्रा की। सर्वत्र उन्‍हें यथेष्‍ट मान-सम्‍मान प्राप्‍त हुआ। उनकी पद्य-रचनाऍं आज भी जोधपुर के सीताराम मंदिर के किवाड़ पर खुदी हुई हैं तथा उनसे संबंधित शिलालेख दरंभगा के काली मंदिर में विद्यमान हैं।
1958 ई. में बिहार राष्‍ट्रभाषा परिषद के वयोवृद्ध-सम्‍मान-पुरस्‍कार से सम्‍मानित जगदीश कवि की मौलिक-संपादित कृतियों में 'बूटी रामायण', 'महाराणा प्रताप', 'राघव विजयावली', 'साहित्‍यसार', 'मिथिला-राज्‍य-प्राप्ति-कवितावली', 'राग मंजरी', रामविवाह उर्फ कालिका प्रमोद' तथा 'महावीर-विजय पचीसी' शामिल हैं, जबकि अप्रकाशित कृतियॉं हैं--'दुर्गा सप्‍तशती' (मैथिली), 'भ्रमरदूत' (हिन्‍दी), 'रस-निरूपण', 'गॉंधी-रामायण', काव्‍य-कला-कोष-मंजूषा' और 'अलंकार-दर्पण'। उनका निधन 1970 के दशक में हुआ।

Wednesday, July 7, 2010

कोसी अंचल के दो आरंभिक कवि


अन्य सिद्ध कवियों में निर्गुणपा (ग्यारहवीं शती) को भी हम कोसी अंचल का मान सकते हैं। चैरासी सिद्धों में उनका स्थान 57वाँ है। उनका निवास-स्थान पूर्व देश बताया गया है। पूर्वदेश से राहुल सांकृत्यायन का तात्पर्य भंगल और पुंड्रवर्द्धन से है। स्तन्-ग्युर में अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी में रचित उनकी एक कृति शरीर-नाडिका-बिन्दुसमता संगृहीत है।
बौद्धधर्म प्रचारक विनयश्री (बारहवीं शती) का निवास-स्थान पूर्वी मिथिला बताया गया है। यह निर्विवाद रूप से कोसी अंचल ही है। उनका संबंध विक्रमशिला, नालंदा और जगतल्ला के बौद्ध बिहारों से था। मुस्लिमों द्वारा इन विहारों के नष्ट हो जाने के पश्चात् वे अपने गुरु शाक्य-श्रीभद्र और अन्य व्यक्तियों के साथ 1203 ई. में तिब्बत पहुँचे। उस समय उनकी अवस्था 35 वर्षों से कम नहीं थी। उन्होंने शाक्य-श्रीभद्र को अनेक भारतीय ग्रंथों के भोट-भाषा में अनुवाद करने में सहायता की। जगतल्ला-विहार के पंडितों-विभूतिचंद्र, दानशील, सुगतश्री, संघश्री (नैपाली) आदि साथियों के साथ उनके तिब्बत के ‘स. स्क्य-विहार’ में भी रहने का उल्लेख मिलता है। वहीं राहुल सांकृत्यायन को 12-13वीं सदी में लिखित कुछ पृष्ठ मिले, जिनमें विनयश्री के 15 गीत हैं। वे मैथिली भाषा में रचना किया करते थे।